________________ परिच्छेद पाँच राजस्व और कर-प्रणालियाँ राजस्व का सम्बन्ध सरकारी आय और व्यय से होता है। राज्य अपने राजकीय दायित्वों और ख) को वहन करने के लिए जनता से कर आदि के माध्यम से कोश भरता है। राज्य की समृद्धि बेहतर राजस्व प्रणालियाँ और उनके सही क्रियान्वयन पर निर्भर होती है। आगम-ग्रन्थों में राजस्व के बारे में पर्याप्त सूचनाएँ मिलती हैं। राज्य की आय के स्रोत कृषि मुख्य व्यवसाय था। बड़े पैमाने पर खेती-बाड़ी की जाती थी। इसलिए कृषि सम्बन्धी कर राज्य की आय के मुख्य स्रोत थे। इसमें सर्वप्रथम भूमि पर लगने वाले कर लंगान' की चर्चा यहाँ की जा रही है। लगान . जैसा कि चर्चा की जा चुकी है, भूमि पर राज्य का स्वामित्व भी होता था और व्यक्तिगत भी। व्यक्तिगत स्वामित्व के अन्तर्गत अधिकांशतः गाथापति, श्रेष्ठी आदि धनाढ्य व्यक्तियों का स्वामित्व होता था।' ऐसी खेतीहर जमीन के मालिक स्वयं खेती न करके उसे भूमिहीन किसानों को खेती करने के लिए सौंप देते थे तथा उनसे प्रतिफल स्वरूप उपज का निश्चित अंश प्राप्त करते थे तथा उसमें से राज्य को भी एक निर्धारित भाग देना होता था। राज्य को भू-उपयोग के बदले दिये जाने वाले शुल्क को लगान कहा जाता है। यह शुल्क उपज अथवा मुद्रा में दिया जा सकता था। भूमिहीन कृषक, जो इस प्रकार हिस्सेदारी से या बटाई से खेती करते थे, उन्हें 'भाइलग्ग' कहा जाता था। ऐसे भाइलग्गों के साथ कठोर व्यवहार न करने के निर्देश भी दिये जाते थे। इससे प्रतीत होता है कि उनके साथ न्याय नहीं होता होगा और राज्य व भले लोगों द्वारा न्याय की गुहार की जाती होगी। व्यवहार सूत्र के अनुसार खेती के अलावा भी भूमि उद्योगादि के लिए किराये पर दी जाती थी। आवश्यकचूर्णि में लगान को खेतकर कहा है, वह उपज का 1/4 से 1/8 तक होता थाबृहत्कल्पभाष्य के अनुसार खेतकर उपज का 1/6 से 1/10 भाग होता था। अच्छी पैदावार वाली भूमि पर लगान दर अधिक होती थी। जो किसान नई भूमि को उपजाऊ बनाता उसे राज्य खेती के लिए आवश्यक विशेष सुविधाएँ प्रदान (77)