________________ परिच्छेद चार मुद्रा और विनिमय समाज में हर व्यक्ति हर कार्य नहीं कर सकता है। सबमें सब योग्यताएं नहीं होती है। बहुत योग्यताएँ रखने वाला भी सारे कार्य अकेला नहीं कर सकता है। हर जगह हर चीज उपलब्ध भी नहीं होती है। यहीं पर समाज का जन्म होता है और समाज की इन व्यवस्थाओं को नियमित और नियन्त्रित करने में अर्थशास्त्र का जन्म होता है। पारस्परिक निर्भरता का सिद्धान्त ___आर्थिक और गैर-आर्थिक सारा व्यापार-व्यवहार पारस्परिक निर्भरता के सिद्धान्त' पर चलता है। आचार्य उमास्वाति ने 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् सूत्र किसी भी सन्दर्भ में दिया हो, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में पारस्परिक निर्भरता का यह सिद्धान्त बहुत ही मूल्यवान और अर्थपूर्ण है। योगी को भी सहयोगी की आवश्यकता होती है। वन में जाकर साधना करने वाला भी निरपेक्ष रूप से स्व-निर्भर नहीं हो सकता है। ___ पारस्परिक निर्भरता का सिद्धान्त विकास और समृद्धि का मूल है और इसे निष्ठा व ईमानदारी से निभाया जाय तो यह सुव्यवस्था और शान्ति का हेतु भी है। इस सिद्धान्त का आरम्भ आर्थिक जगत् में वस्तुओं की अदला-बदली के रूप में हुआ, जिसे वस्तु-विनिमय कहा जाता है। वस्तु-विनिमय विनिमय की आरम्भिक प्रणाली थी, जो आगम युग में भी विद्यमान थी। परन्तु, इसके साथ ही आगम युग में मुद्रा का प्रचलन भी विद्यमान था। मुद्रा का आविष्कार जैसे विज्ञान के विकास में चक्र का आविष्कार महत्वपूर्ण बताया गया उसी प्रकार वाणिज्य के विकास में मुद्रा ने अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। मुद्रा ने वस्तु विनिमय की सारी बाधाओं और सीमाओं को दूर कर दिया। जैसा कि बताया गया कि विभिन्न रूपों में मुद्रा का प्रचलन आगम युग में था। ईस्वी पूर्व छठवीं शताब्दी में यानि भगवान महावीर के समय में पंचमार्क सिक्कों प्रचलन माना जाता है। ए. कनिंघम ने ईस्वी पूर्व 1000 लगभग में भगवान पार्श्वनाथ के समय में पंचमार्क सिक्कों के होने की बात कही है। ये सिक्के (66)