________________ ढालकर बनाये जाते थे। मानव सभ्यता, संस्कृति और वाणिज्य के विकास मे यह तथ्य बहुत महत्वपूर्ण है। सिक्के कूट-काट कर भी बनाये जाते थे। राज्य के अलावा राज्य की अनुमति से विभिन्न श्रेणियाँ और निगम इन सिक्कों को जारी करते थे। मुद्रा सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार मास, अर्धमास और रुवग क्रय-विक्रय के साधन थेउपासकदशांग और ज्ञाताधर्मकथांग में हिरण्य और सुवर्ण शब्दों का एक साथ प्रयोग हुआ है, जबकि निशीथ सूत्र में सुवर्ण शब्द स्वतन्त्र रूप से आया है। नासिक गुहा-लेख (सन् 120) के अनुसार एक सुवर्ण 35 रजत-कार्षापण के बराबर होता था। वसुदेव उपाध्याय ने हिरण्य को स्वर्ण-पिण्ड कहा जबकि चिह्नित स्वर्ण-सिक्कों को सुवर्ण कहा है। छोटे सिक्कों को सुवण्णमासय (सुवर्णमाषक) कहा जाता था। डॉ. भण्डारकर ने सुवर्णमासक का वजन एक मासा बताया है। एक ही प्रकार की मुद्रा का विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न नाम तथा भिन्न मूल्य होता था। ऐसा मुद्रा की क्रय-शक्ति और क्षेत्र-विशेष की भाषा के कारण होता था। इससे सम्बन्धित राज्य की आर्थिक हैसियत का आकलन भी होता था। स्वर्ण-सिक्के व दीनार -- स्वर्ण-सिक्कों को सुवर्ण कहा गया है, जो 32 रत्ती के होते थे। कल्पसूत्र के अनुसार भगवान महावीर की माता को चौदह स्वप्न आते हैं। उनमें एक है - लक्ष्मी। लक्ष्मी के वर्णन में बताया गया - लक्ष्मी के वक्षस्थल पर स्वर्ण मुद्रओं का हार शोभित हो रहा था। यहाँ स्वर्ण मुद्रा के लिए 'दीणार' शब्द प्रयुक्त है। ईस्वी सन् की पहली शताब्दी में कुशानकाल में रोम के डिनेरियस नामक सिक्के से 'दीनार शब्द को लिया माना जाता है। साथ ही कल्पसूत्र का रचनाकाल भी प्रथम सदी माना जाता है। प्रश्न है कि दीनार रोम से भारत आया या भारत से रोम गया? निशीथचूर्णि से ज्ञात होता है कि मयूरांक राजा ने अपने नाम से चिह्नित दीनार चलाये थे। उत्तराध्ययनचूर्णि में एक व्यापारी गणिका को 800 दीनार देता है। आवश्यकचूर्णि में राजा काटिक को एक युगलवस्त्र और दीनार भेंट स्वरूप देता . . है। दशवैकालिकचूर्णि में भी दीनार का उल्लेख है। चूर्णिसाहित्य में दीनारों के माध्यम से लेन-देन के उल्लेखों से पता चलता है कि उस समय की स्वर्ण-मुहरों में ... दीनार मुख्य था। (67)