________________ रजत-सिक्के ऊपर बताया जा चुका है कि सूत्रकृतांग में रुवग का उल्लेख चाँदी के सिक्कों के लिए माना जाता है। रुवग के लिए रुप्य शब्द भी मिलता है। राजस्थानी में 'रूपा' शब्द चाँदी के पर्याय के रूप में हुआ है। वर्तमान में हिन्दी व अंग्रेजी में मुद्रा के लिए प्रचलित शब्द 'रुपया' (Rupee) का उद्गम रुवग से हुआ लगता है। मूल्य की दृष्टि से सोने के बाद चाँदी ही ऐसी धातु है जिसका मुद्रा ढालने में बहुत उपयोग हुआ। प्रचलन की दृष्टि से रजत-सिक्के स्वर्णसिक्कों से ज्यदा क्षेत्र में और दीर्घ अवधि तक चलन में रहे। इसकी वजह स्वर्ण की तुलना में चाँदी की कम कीमत और अधिक सुलभता है। खुदाइयों में भी प्रचीन काल के प्रचुर रजत-सिक्के मिले हैं। रुवग के अलावा चाँदी के सिक्कों में कार्षापण, अर्द्ध-कार्षापण (आधे मूल्य का कार्षापण), पाद-कार्षापण (चौथाई मूल्य का कार्षापण), माष-कार्षापण (16वें मूल्य का कार्षापण), सुभाग, नेलग, द्रम्म आदि के उल्लेख मिलते हैं। उत्तराध्ययन4 में खोटे कार्षापण का उल्लेख मिलता है। अनाधिकृत तौर पर लोग खोटे सिक्के (कूड कहावण) भी चला देते थे। प्रश्नव्यकरण' में उन्हें 'कूडकहापणोजीवी' कहा गया है। बेशक, वे दण्ड के भागी होते थे। ताम्र व अन्य मुद्रा कार्षापण के अन्तर्गत ताम्र-कार्षापण भी हुआ करते थे। इनमें भी पण और माष हुआ करते थे। इनके अलावा काकिणी का उल्लेख मिलता है। चूर्णिसाहित्य में ताम्र सिक्कों के उल्लेख मिलते हैं। इनके अलावा कौड़ियों का भी मुद्रा के रूप में चलन था। बृहत्कल्पभाष्य" और निशीथचूर्णिी में कौड़ी को कवडुक' कहा है। निशीथचूर्णि में चर्म-मुद्रा का भी उल्लेख है, जो भीनमाल में चलती थी। छोटे-छोटे दैनिक व्यवहारों में इन मुद्राओं का बहुतायत से प्रयोग होता था। उपासकदशांग सूत्र में आचार्य आत्मारामजी ने सभी प्रकार की मुद्राओं को चौदह श्रेणियों में वर्गीकृत किया है।" जैन-सिक्के जैन धर्मानुयायी तथा जैन धर्म से प्रभावित राजाओं ने अपने राज्य में और शासन-काल में जो मुद्राएँ निर्गमित की, उन पर विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से जैन-धर्म की भावनाएँ अंकित की हैं। ऐसे जैन प्रतीकों से युक्त मुद्राओं को जैन (68)