________________ . भूमि पर सामूहिक स्वामित्व के अनेक उदाहरण मिलते हैं। आचारांग2 में निर्देश है कि चरागाहों में उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन नहीं करें। ऐसे चरागाहों पर लोगों का सामूहिक स्वामित्व होता था। गाँव के मवेशी चरागाह में चरने जाते थे। लोग बंजर भूमि को चरागाहों में बदलने में निपुण थे। इससे ग्राम स्तर या स्थानीय स्तर पर भूमि का रख-रखाव और स्वामित्व सिद्ध होता है। जिसकी तुलना वर्तमान में पंचायती राज या ग्राम-स्वराज से की जा सकती है। व्यक्तिगत और सामूहिक स्वामित्व के अलावा समस्त भूभाग और वनप्रान्त पर राज्य का स्वामित्व होता है। भूमिस्थ निधि और खनिज पर भी राज्य का अधिकार होता है। भूमि को आर्थिक दृष्टि से उपयोगी बनाने के लिए राज्य की ओर से प्रयास किये जाते थे। राज्य की ओर से भूमिहीन कृषकों को भूमि प्रदान की जाती थी, जिस पर हुई उपज का निर्धारित भाग राजकोष में भी जमा कराना होता था ज्ञाताधर्मकथांग के अनुसार नन्दन मणिकार ने राजा श्रेणिक को धन भेंट करके पुष्करिणी बनाने की आज्ञा प्राप्त की थी। स्पष्ट है कि भूमि धनोपार्जन और उत्पादन का मुख्य आधार थी तथा प्राचीन समय से ही भूमि और प्राकृतिक संसाधनों का आर्थिक महत्व समझा जाने लगा था। श्रम (मानव संसाधन) जैसा कि कहा जा चुका है कि श्रमण संस्कृति श्रम पर ही अवलम्बित है। वह श्रम जिस प्रकार अध्यात्म-क्षेत्र में अभीष्ट है, उसी प्रकार भौतिक क्षेत्र में भी। भौतिक क्षेत्र में भी शारीरिक और बौद्धिक दोनों ही प्रकार के श्रम सम्मिलित है। अर्थशास्त्र में उसी क्रिया को श्रम माना गया है जो आर्थिक उद्देश्य से की गई हो तथा जिससे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अर्थोपार्जन हो। अर्थशास्त्र में श्रम का महत्व इतना बढ़ा कि मनुष्य को 'संसाधन' कहा जाने लगा। प्राचीन काल से ही मानव श्रम का मुख्य हेतु माना जाता रहा है। नौकरों-अनुचरों और दास-दासियों को गृहस्थ की सम्पत्ति में परिगणित करना इसका प्रमाण है। भगवान महावीर ने प्रथम अहिंसा और पाँचवें अपरिग्रह अणुव्रत में मानव तथा मानव-श्रम को मानवीय गरिमा प्रदान करने और उसका समुचित मूल्यांकन करने के स्पष्ट संकेत किये हैं। उनका यह मूल्यांकन मानव को संसाधन नहीं मानकर उसे मानवीय गरिमा प्रदान करता है। दूसरा मानवीय श्रम एक सर्जनात्मक और आत्म-सन्तुष्टि का उपादान है। उसे निर्जीव वस्तुओं की तरह बिकाऊ बनाने की बजाय, उसका उदात्तीकरण किया (55)