________________ में भी इसी प्रकार से मानव की चल-अचल सम्पत्तियों का उल्लेख है, जिनसे पूंजीनिर्माण होता है और जो पूंजी की घटक है। पूंजी और हैसियत पूंजी की मात्रा के अनुसार लोगों की हैसियतें आंकी जाती थी। जिसके पास हस्ति-प्रमाण मणि, मुक्ता, प्रवाल, सुवर्ण, रजत आदि द्रव्य हो, उसे 'जघन्य इभ्य', जिसके पास हस्ति-प्रमाण वज्र, हीरे, मणि-माणिक्य हो, उसे 'मध्यम इभ्य' और जिसके पास हस्ति-प्रमाण केवल वज्र हीरों की राशि हो उसे 'उत्कृष्ट इभ्य' कहा जाता था। आचारांग में कहा गया है कि व्यक्ति अपने भविष्य की सुरक्षा, सन्तान के पालन-पोषण तथा सामाजिक दायित्व के भली-भाँति निर्वहन के लिए संचय करता है। मानव व्यवसाय के माध्यम से इतना धन उपार्जित कर लेता था कि समस्त खों के बाद भी पर्याप्त धन बचा लेता था, जिसे आज की भाषा में शुद्ध लाभ कह सकते हैं। यह लाभ प्रत्यक्ष तौर पर पूंजी वृद्धि का हेतु है। ____ व्यक्ति आरंभ से ही पूंजी-वृद्धि के लिए यत्नशील रहा है। इसी वजह से व्यापार और व्यवसाय की वृद्धि और समृद्धि के लिए नित नये तरीके आज दिन तक अपनाये जाते हैं। सोमदेवसूरि मनुष्य को कोष बढ़ाने का सुझाव देते हैं और पूंजी वृद्धि के तीन माध्यम बताते हैं - कृषि तथा व्यापार द्वारा, बचत द्वारा और पैतृक सम्पत्ति द्वारा / इनमें मुख्य माध्यम व्यवसाय की अभिवृद्धि है। - आगम ग्रन्थों में पूंजी की महत्ता को पूरी तरह समझाया गया है। पंजी की गणना और उसके आकलन की समुचित लेखांकन प्रणालियाँ भी विद्यमान थीं। परन्तु पूंजीवाद जैसी कोई बात नहीं थी। महावीर-युग में पूंजीवाद, समाजवाद आदि वादों-विवादों से मुक्त एक स्वतन्त्र मानवीय अर्थव्यवस्था थी। अर्थोपार्जन और विसर्जन में नीति, अहिंसा और अपरिग्रह जैसे नियमों का विवेकसम्मत ढंग से परिपालन करने वाले व्यक्ति समाज को बेहतरीन व्यवस्था प्रदान कर रहे थे। . भगवान पार्श्वनाथ और महावीर के अनुयायी उनमें अग्रणी थे। प्रबन्ध - आधुनिक अर्थशास्त्र के अनुसार प्रबन्ध धनोपार्जन का एक ऐसा साधन है जो पूर्व तीनों - भूमि, श्रम और पूंजी में समन्वय स्थापित कर वाणिज्यिक गतिविधियों को सुगम और अधिकाधिक लाभप्रद बनाता है। सुविचारित, सुव्यवस्थित, सुनियोजित और दूरदर्शितापूर्ण वाणिज्यिक कौशल ही प्रबन्ध है। (59)