________________ आगम-युग में प्रबन्ध के अनेक रूप देखने को मिलते हैं। अनेकान्त-सिद्धान्त और कषाय-उपशमन प्रबन्ध के प्राण-तत्त्व हैं। इस भूमिका पर भगवान महावीर के . अनुयायियों का प्रबन्धकीय कौशल आगम-युग से आज तक विशिष्ट रहा है। प्रबन्ध आज वाणिज्य अध्ययन का एक प्रमुख उपादान बन गया है। वाणिज्यिक कौशल .. अर्जन के लिए वाणिज्यिक कौशल का इतना महत्व रहा कि धर्म के सिद्धान्तों की व्यख्या करने और धर्माचरण करने में अनेक स्थलों पर व्यावसायिक चातुर्य के उदाहरण और दृष्टान्त मिलते हैं। जिस प्रकार व्यक्ति अपने व्यवसाय के प्रति सजग रहता है उसी प्रकार उसे आत्म-साधना में भी सजग रहना चाहिये। अर्थिक और गैर-आर्थिक सभी दृष्टिकोणों से प्रबन्ध के विषय में पर्याप्त सामग्री आगम-ग्रन्थों में मिलती है। संघीय व्यवस्था का निदर्शन जैन परम्परा में विद्यमान संघीय व्यवस्था प्रबन्ध का एक उत्तम उदाहरण है। वहाँ संगठन, प्रशासन, अनुशासन और सहयोग को महत्व दिया गया है। आत्म-साधना को सामूहिक और संघीय व्यवस्थाएँ प्रदान की गई है। आचार्य संघीय व्यवस्था का अनुशास्ता होता है। उसे संघ-संचालक और धर्म-नेता (नेतृत्वकर्ता) की संज्ञा दी गई है। दशाश्रुतस्कन्ध में आचार्य की आठ सम्पदाएँ बताई गई हैं - आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति और संग्रहपरिज्ञा सम्पदा। एक श्रेष्ठ प्रबन्धक के लिए भी ऐसी ही अर्हताओं की आवश्यकता होती हैं। उसके लिए सदाचरण के प्रति दृढ़ता, विषय-विशेषज्ञता, प्रज्ञाशीलता तथा मानव मन का पारखी होना आवश्यक है। संघ के कुशल संचालन के लिए आचार्य के शिष्यों के प्रति और शिष्यों के आचार्य के प्रति कर्त्तव्यों का निरूपण किया गया है। यह निरूपण बहुत वैज्ञानिक और आत्मानुशासन पैदा करने वाला है। छेद-सूत्रों में कहा गया है कि संघ से जुड़ा साधक अपने लक्ष्य के प्रति अप्रमत्त रहे, संघ के प्रति निष्ठावान और सद्गुणों के प्रति विनयवान रहे। वह कोई ऐसा कार्य, वचनप्रयोग या व्यवहार नहीं करें जिससे संगठन में कलह या विग्रह पैदा हो। व्यावहारिक प्रबन्ध के लिए छेद-सूत्रों की व्यवस्था उचित राह सुझाती है। तीर्थंकर महावीर के अनुयायी अपने व्यावसायिक विस्तार और लाभ के लिए उच्च स्तरीय प्रबन्धकीय कौशल का परिचय देते थे तथा अनेक व्यक्तियों को उसमें निष्णात बनाते थे। (60)