________________ परिच्छेद एक अर्थ सम्बन्धी अवधारणाएँ जैन धर्म का अपना मौलिक और स्वतन्त्र दर्शन है। अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी कालखण्ड, पुद्गल परावर्तन, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य जैसी मौलिक वैज्ञानिक अवधारणाएँ सृष्टि को शाश्वत सिद्ध करती हैं। इन अवधारणाओं के आधार पर जैन परम्परा में उल्लेखित अनन्त चौबीसियों की मान्यता सही सिद्ध होती है। इसका फलित यह है कि निर्ग्रन्थ श्रमण परम्परा अनादिकालीन है और अनन्त काल तक इसका अस्तित्व रहेगा। अर्थात् यह शाश्वत है। नन्दी और समवायांग में इसी दृष्टि से जैनागमों को भी अनादि-अनन्त कहा गया है। कर्मभूमि और कर्म __ प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में पाँच-पाँच आरे होते हैं। वर्तमान में अवसर्पिणी काल चल रहा है। इसके तीसरे आरे के अन्त तक कल्पवृक्षीय व्यवस्था रही; जिसे 'भोग भूमि' कहा गया। शनैः शनैः भोग भूमि की व्यवस्थाएँ समाप्त होने लगीं। उसके बाद 'कर्म भूमि' युग आरम्भ होता है। कर्म का आशय पुरुषार्थ से है। जीवन के भौतिक अभौतिक सभी क्षेत्रों में पुरुषार्थ आवश्यक है। जिसे आधुनिक सभ्यता का प्रारम्भिक युग कहा जाता है, जैन परम्परा में उसे कर्मभूमि कहा गया। पुरुषार्थ की बुनियाद पर ही सभ्यता और संस्कृति का मंगलाचरण होता है। भारतीय सभ्यता के प्रारम्भिक युग के पूर्व की मानव सभ्यता का जो विवरण जैन परम्परा में प्रस्तुत किया गया है, उसमें सच्चाई के साथ-साथ वैज्ञानिकता भी है। इस परम्परा को विकसित करने में मुख्यतया तीन आधार हैं - प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव, उनके बाद के 22 तीर्थंकर एवं 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर और उनकी शिष्य परम्परा / श्रमण संस्कृति और श्रम __ श्रमण परम्परा का आरम्भ जिस संस्कृति से हुआ वह आर्य एवं वैदिक संस्कृति के पूर्व की थी। श्रमण परम्परा में 'समण' शब्द के तीन अर्थ है - सम, शम और श्रम। इसका अर्थ है मानसिक-वैचारिक सन्तुलन व परिपक्वता के साथ सबके प्रति समता और समानता का व्यवहार करते हुए श्रमपूर्वक जीवन जीना। इसकी सम्पूर्ण साधना विवेकसम्मत श्रम और पुरुषार्थ पर अवलम्बित है। पुरुषार्थ (34)