________________ तप, अनुष्ठान, मन्त्र जाप आदि किया करते हैं। धर्म का फैलाव भौतिक और आध्यात्मिक दोनो दिशाओं में दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार अर्थ और धर्म अन्योन्याश्रित हो जाते हैं और काम और मोक्ष की साधना इन पर निर्भर हो जाती है। आगम ग्रन्थों के अनेक पात्र आत्म-कल्याण के लिए धर्म करते हैं और जीविका तथा परिवार के भरण-पोषण के लिए जान जोखिम में डालकर भी अर्थोपार्जन के लिए पुरुषार्थ करते हैं। देश-देशान्तर की यात्रा करते हैं। सार्थवाह व्यापार के माध्यम से लोगों में सामुदायिक भावना जगाने और संयुक्त साहस से लाभ कमाने के लिए प्रेरित करते हैं। ___न्यायपूर्ण अर्थ की इसी अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए सोमदेवसूरि कहते हैं कि अर्थ के बिना धर्म और काम संभव नहीं, इसलिए अर्थोपार्जन सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिये। उनका कहना है 'जो मनुष्य काम और अर्थ की उपेक्षा. करके केवल धर्म की ही सतत् उपासना करता है, वह पके हुए खेत को छोड़कर जंगल को काटता है। सुखी और सन्तुलित जीवन के लिए मानव धार्मिकता के साथ-साथ धनोपार्जन करें और व्यय करें तथा अपने लौकिक सुख को कायम रखता हुआ लोकोत्तर सुख की साधना करें। चूंकि अर्थ से सारे प्रयोजन सिद्ध होते हैं इसलिये व्यक्ति को अप्राप्त धन की प्राप्ति, प्राप्त धन की रक्षा तथा रक्षित धन की वृद्धि करनी चाहिये, जिससे वह धनवान हो सके। अर्थ होगा तो उसे दान के रूप में विसर्जित और भलाई के कार्यों में विनियोजित किया जा सकेगा। अर्थ पुरुषार्थ की महत्ता पउमचरियं में धन का महत्व बताते हुए कहा गया है कि जिसके पास धन है वही सुखी है, पण्डित है, यशस्वी है, महान है; धर्म भी उसके अधीन है। अहिंसा के उपदेश वाले धर्म के पालन में भी धनवान ही समर्थ हो सकता है। वसुदेवहिण्डी में कहा गया है कि अर्थ से ही सारे कार्य सम्भव होते हैं। धन होने से ही लोग आदर करते हैं। अल्प धन जानकर आत्मीय भी मुँह मोड़ लेते हैं; परायों का तो कहना ही क्या? कुवलयमालाकहा में स्थाणु और मायादित्य का संवाद अर्थ पुरुषार्थ की महत्ता और अर्थ पुरुषार्थ में अनिन्दित (अहिंसक) साधनों से धनोपार्जन की प्रेरणा देता है। हरिभद्रसूरि कहते हैं कि अर्थरहित पुरुष को पुरुष नहीं कहा जा सकता, क्यों कि न तो वह यश प्राप्त कर सकता है, और न सज्जनों की संगति और न ही वह परोपकार कर सकता है। जयवल्लभ कहते है कि धनहीन का कोई आदर नहीं करता है। (44)