________________ साम्यवाद वैषम्य-निवारण में पुरुषार्थ डॉ. सागरमल जैन चारों पुरुषार्थों को वैषम्य निराकरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। - विषमताएँ विषमता के निराकरण निराकरण का . पुरुषार्थ चतुष्टय का सिद्धान्त परिणाम से सम्बन्ध आर्थिक अपरिग्रह अर्थ-पुरुषार्थ (परिग्रह-परिमाण) (सम-वितरण) सामाजिक अहिंसा शान्ति व अभय धर्म-पुरुषार्थ (अयुद्ध) (नैतिकता) वैचारिक अनाग्रह (अनेकान्त) वैचारिक समन्वय धर्म व मोक्ष एवं समाधि पुरुषार्थ मानसिक अनासक्ति आनन्द काम व मोक्ष (वीतरागावस्था) पुरुषार्थ ___एक अर्थ-पुरुषार्थ के डाँवाडोल होने से अन्यान्य पुरुषार्थ खतरे में पड़ जाते हैं। चारों पुरुषार्थों में अर्थ की सामर्थ्यवान सत्ता और महत्ता निर्विवाद और असन्दिग्ध है। परन्तु अर्थ का प्रभाव और अर्थ का अभाव दोनों ठीक नहीं है। अर्थ के प्रति एक सम्यक् दृष्टिकोण होना चाहिये। आगम में उसी सम्यक् दृष्टिकोण का प्रतिपादन है। अर्थ के उपयोग की दृष्टियाँ यह निर्विवाद है कि जैन परम्परा ने अहिंसा पर सर्वाधिक बल दिया है। सर्वोच्च आध्यात्मिक ऊँचाई के लिए सम्पूर्ण अहिंसा अनिवार्य है। जीवन की सुदीर्घ यात्रा में अहिंसा की बहुआयामी और सर्वव्यापी आवश्यकता है। परिवार, समाज, आजीविका आदि क्षेत्रों में भी अहिंसा के विचार को केन्द्र में रखा गया। अहिंसा के केन्द्र में रहने से सर्वोदय-विचार और साधन-शुद्धि जैसी बातें आगम युग में ही मूर्त रूप ले चुकी थीं। जैनाचार में धनार्जन में न्याय नीति और अहिंसा का जो विवेक प्रदान किया गया है, धन के उपयोग में भी वैसे ही गहरे विवेक का निर्देश किया गया है। कभी कभी लगता है कि धन का आदर्श उपयोग, धनार्जन से भी कठिन कार्य है। जैन परम्परा का आचार शास्त्र धन के सर्वोत्तम और विवेकसम्मत उपयोग का सख्त और सूक्ष्म निर्देश करता है। (45)