________________ परिच्छेद तीन अर्थोपार्जन के मुख्य साधन जैन धर्म अपनी मौलिक स्थापनाओं और मान्यताओं के लिए जाना जाता है। साधन-शुद्धि की जो बात बीसवीं सदी में महात्मा गांधी ने कही, उसके प्रेरक सूत्र हमें आगम ग्रन्थों में मिलते हैं। मानव अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए मूलतः प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहता आया है। जैन और अहिंसा की दृष्टि से धनोपार्जन के साधनों में यह विशेष ध्यान रखा जाता है कि प्रकृति को कम-सेकम क्षति हो। साधन शुद्धि तो हो ही, साधनों का उपयोग भी विवेकसम्मत होना चाहिये। जिससे पर्यावरण और समाज को नुकसान नहीं पहुँचे। अर्थोपार्जन में पर्यावरण-दृष्टि जैन ग्रन्थों में छ: लेश्याओं का वर्णन मिलता है। उनमें प्रथम तीन - कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओं को अप्रशस्त कहा गया है तथा अन्तिम तीन - पद्म, तेजो और शुक लेश्याओं को प्रशस्त / लेश्याओं के क्रम को समझने के लिए एक रोचक उदाहरण दिया गया है। छ: यात्री होते हैं। उन्हें भूख लगती है। भोजन की तलाश करते हुए फलों से लदा एक जामुन का पेड़ उन्हें दिखाई पड़ता है। कृष्ण लेश्या वाला फल प्राप्ति के लिए पेड़ को जड़मूल से उखाड़ने की बात करता है। नील लेश्या वाला कहता है - जड़ से उखाड़ने से क्या फायदा ? पेड़ की शाखाएँ काट लेने से ही अपना काम हो जायेगा। इस पर तीसरा कहता है - जिन डालियों पर फल लगे हैं, उन्हें काटना पर्याप्त है। उसे कापोत लेश्या वाला कहा गया। पद्म लेश्या वाला बोलता है - फलयुक्त टहनियाँ तोड़ना काफी है तो तेजो लेश्या वाले ने सिर्फ . फल तोड़कर खा लेने का सुझाव दिया। इस पर शुकू लेश्या वाला बोलता है कि फल तोड़ने की भी कहाँ आवश्यकता है ? वृक्ष के नीचे जो फल सहज रूप से गिर गये हैं, उनसे ही हमारी भूख शान्त हो जाएगी। इस दृष्टान्त में क्रूरता से करुणा की ओर यात्रा है। साथ ही, अर्थशास्त्रीय दृष्टि से साधनों और संसाधनों को बिना नुकसान पहुँचाये या कम-से-कम नुकसान पहुँचाये अधिकतम लाभ प्राप्त करने की प्रेरणा भी है। ऐसे अनेक कथानक और दृष्टान्त जैन आगम ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं, जिनमें प्रकृति, पर्यावरण, जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की रक्षा के अमर सन्देश दिया गये हैं। (51)