________________ निवेश और व्यवसाय विस्तार धन को व्यापार, वाणिज्य और व्यवसाय में लगाना निवेश है। इसमें बचत और लाभ तत्व भी समाविष्ट रहते हैं। अतिरिक्त धन से व्यावसायिक पूंज़ी में बढ़ोतरी करना, नया व्यवसाय आरम्भ करना, नव रोजगार सृजन तथा रोजगार के लिए आर्थिक सहयोग आदि निवेश के विभिन्न रूप हैं। भगवान महावीर के प्रमुख श्रावक आनन्द ने अपने धन का एक चौथाई हिस्सा चार करोड़ स्वर्ण व्यापार में. लगा रखा था। . दान की चर्चा के अन्तर्गत अपने साधनों और संसाधनों के संविभाग को श्रावक का प्रमुख कर्त्तव्य बताया गया है। दान का तात्पर्य किसी को कुछ दे देना भर नहीं, अपितु पारस्परिकता के नियम का विवेकसम्मत अनुपालन है। आजीविका व्यक्ति के सांसारिक जीवन का धरातल है। वह धार्मिक/आध्यात्मिक जीवन के लिए भी आवश्यक है। रोजगार के लिए योग्य व्यक्ति को आर्थिक सहयोग करना धन का श्रेष्ठ उपयोग है। इससे सामाजिकता मजबूत बनती है तथा समाज सम्पन्न होता है। इसमें देने और लेने वाले दोनों पक्ष निर्भार भी रहते हैं और उपकृत भी होते हैं। पारस्परिक निर्भरता और पारस्परिक उपकार का दृष्टिकोण "परस्परोपग्रहो जीवानाम् 23 से फलित होता है। आर्थिक-सामाजिक समता, सहअस्तित्व, शान्ति, सौहार्द्र और मानवता की दृष्टि से यह सूत्र अत्यन्त मूल्यवान है। सहयोग के अलावा अपने व्यवसाय का विस्तार करना भी धन के उपयोग की एक दृष्टि है। व्यवसाय-का-विस्तार रोजगार के नये अवसर पैदा करता है। उद्यमशीलता और पूंजी की उपलब्धता सब जगह नहीं होती। व्यवसाय या बड़ा व्यवसाय करना सबके वश की बात नहीं है। ऐसे में नव-उद्यम अनेक व्यक्तियों के लिए रोजगार का आधार बन जाता है। उपासकदशांग के कोशवर्गीकरण का नीतिवाक्यामृत में समर्थन किया गया है और बताया गया है कि धन से ही धन की वृद्धि होती है। मनुष्य को अपनी आय का चौथाई भाग पूंजी वृद्धि हेतु, चौथाई भाग व्यापार करने हेतु, चौथाई उपभोग और चौथाई आश्रितों के भरण पोषण के लिए निर्धारित करना चाहिये / इस प्रकार ग्रन्थों में जगह-जगह व्यापारवृद्धि और विस्तार की पर्याप्त सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। (48)