________________ 'दव्य' शब्द का अर्थ प्राकृत साहित्य में एक शब्द आया है - 'दव्व' (द्रव्य/धन)। इसका अर्थ करते हुए बताया गया कि वह द्रवित होता रहे; एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलता रहे। प्रवाहमान नीर स्वच्छ तो होता ही है, वह देश देशान्तर को भी लाभान्वित करता है, सरसब्ज बनाता है। उसके नैसर्गिक कल-कल नाद से सम्पूर्ण प्रकृति पुलकित हो जाती है। बहती सरिता समता, गतिशीलता और परोपकार का अमर सन्देश देती है। इसी प्रकार समाज में अर्थ की प्रवाहशीलता का महत्व है। भगवान महावीर के अर्थ के संविभाग और असंग्रह के उपदेश में व्यष्टि और समष्टि का समग्र हित सन्निहित है। अर्थोपयोग की तीन दर्षष्टयाँ सामान्यतः धन की तीन गतियाँ बताई गई हैं - दान, भोग और नाश। इनमें दान और भोग धन के उपयोग की श्रेणियाँ हैं। जिस धन का उपयोग नहीं किया जाता है, उपयोगकर्ता की दृष्टि से उसकी परिणति नाश है। भगवान महावीर के प्रमुख श्रावक आनन्द ने अपनी विपुल धन-सम्पदा को बराबर चार हिस्सों में बाँट रखा था :1. एक विभाग व्यापार, व्यवसाय, वाणिज्य और उद्योग में। . 2. एक विभाग से आश्रितों का भरण-पोषण, शिक्षा-दीक्षा तथा कौटुम्बिक दायित्व। 3. एक विभाग से अतिथि-सेवा, दान, परोपकार, परमार्थ आदि / तथा 4. एक विभाग निधि (कोष) के रूप में सुरक्षित। इस दृष्टि से धन की चार गतियाँ फलित होती हैं - निवेश, दान, भोग और नाश। दान जैन ग्रन्थों में दान को श्रावक का आवश्यक कर्तव्य बताया गया है। केवल किसी को कुछ दे देना ही दान नहीं है, अपितु उसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का विचार भी होना चाहिये। भ. महावीर कहते हैं - समनोज्ञ व्यक्ति समनोज्ञ (सुविहित) साधु को अशन, पान, खादिम, स्वादिम अर्थात् आहार और वस्त्र, पात्र, शैया प्रदान करें, परम आदर पूर्वक उसकी वैयावृत्ति करें तो वह धर्म का आदान करता है। इन्द्रभूति गौतम भ. महावीर से पूछते हैं - भगवन् ! जो श्रमणोपासक (सद्गृहस्थ) यदि तथारूप श्रमण या माहण को एषणीय आहार देता (46)