________________ परिच्छेद तीन शौरसेनी आगम साहित्य उपलब्ध साहित्य की दृष्टि से शौरसेनी सबसे प्राचीन साहित्यिक प्राकृत मानी जाती है। इसे शूरसेन जनपद में बोली जाने वाली लोक भाषा माना जाता है। इसकी राजधानी मथुरा थी। इस जनपद में 84 वन थे। जिसमें 12 बड़े वन और 72 छोटे वन थे। बाद में अनेक स्थानों पर नगर बस गये। जैसे - वृन्दावन, मधुवन, विधिवन, महावन आदि। अग्रवन के स्थान पर वर्तमान में आगरा बसा हुआ है। शौरसेनी के प्रभाव और विस्तार में वृद्धि के लिए देश-विदेश के व्यापारियों का बड़ा योगदान है। दिगम्बर जैन परम्परा मान्यता प्राप्त आगम ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में प्राप्त होते हैं। इन ग्रन्थों में द्वादशांगी का उल्लेख है परन्तु उसे विच्छिन्न माना जाता है। बारहवें अंग दृष्टिवाद का कुछ अंश शेष रहा, उसके आधार पर आचार्य धरसेन के सांनिध्य में विशाल ग्रन्थ षट्खण्डागम की रचना की गई। षटखण्डागम ____ आचार्यद्वय श्री पुष्पदन्त और श्री भूतबलि षट्खण्डागम के सर्जक हैं। विक्रम की प्रथम शताब्दी इसका रचनाकाल माना जाता है। छः खण्डों में विभक्त होने इसका नाम षट्खण्डागम है। प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा की रचना आचार्य पुष्पदन्त ने तथा शेष आगम की रचना भूतबलि ने कीछः खण्डों का क्रमशः परिचय दिया जा रहा है। 1. जीवस्थान : इसमें आठ प्ररूपणाओं में जीव का वर्णन किया गया है। पहली सत्प्ररूपणा में 177 सूत्र हैं। दूसरी द्रव्य प्रमाणानुगम प्ररूपणा में 192 सूत्र है; जिनमें गुणस्थान और मार्गणाक्रम से जीवों की संख्या बताई गई है। तीसरी क्षेत्र प्ररूपणा में 92 सूत्रों द्वारा जीवों के क्षेत्र का कथन किया गया है। चौथी स्पर्शना प्ररूपणा में बताया गया है कि गुणस्थान और मार्गणा के अनुसार जीव कितने क्षेत्र का स्पर्श करता है। इसमे 185 सूत्र हैं। पाँचवीं कालानुयोग प्ररूपणा के 342 सूत्रों में जीव की अवस्था विशेष की काल मर्यादा का निरूपण है। छठी अन्तर प्ररूपणा में 397 सूत्र हैं, जिनमें विभिन्न गुणस्थानों में संक्रमण की अन्तर अवधि का वर्णन है। सातवीं भावानुयोग प्ररूपणा में 93 सूत्र हैं। आठवीं अल्प-बहुत्व प्ररूपणा में विभिन्न गुणस्थानवर्ती तथा मार्गणास्थानवर्ती (24)