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३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ तीर्थतुल्य वन्दनीय | अभिनव टोडरमल • डॉ० कमलेशकुमार जैन, वाराणसी
बुन्देलखण्डके अमरसपूत सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री उन विरल सरस्वती साधकोंमेंसे हैं, जिनकी लेखनीसे प्रसूत मौलिक चिन्तन-सूत्रों, अकाट्य-तों, शोध-तथ्योंका सर्वत्र समादर है । उनका जीवन प्रारम्भसे ही जैन-सिद्धान्तके मर्मोको उद्घाटित करने में समर्पित रहा है। स्वतन्त्र साहित्य-साधना पण्डितजीका जीवन-धन है। इसीलिए किसी भी प्रकारकी सरकारी, असरकारी, अर्धसरकारी सेवामें उन्होंने रुचि नहीं ली और सेवा-निवृत्तिके पश्चात् होनेवाली आपाधापी-खे दनिन्नतासे सदैव दूर रहकर 'जलसे भिन्न कमल' की उक्तिको चरितार्थ किया है, कर रहे हैं। उन्होंने अपने जीवनमें जैनदर्शन सम्मत कर्म-सिद्धान्तको स्वीकार किया है और सम्प्रति उसी श्रेयोमार्गके पथिक है।
पूज्य पण्डितजीने आजीवन जैनदर्शनके 'स्याद्वाद' सिद्धान्तका न केवल वाचन किया है, अपितु पाचन भी किया है। इसीलिए उनके जीवनमें परस्पर विरोधी, किन्तु सापेक्ष दृष्टिसे अविरोधी अक्खड़ता और सरलताका अद्भुत सामञ्जस्य है। उनके दैनिक जीवनमें उपर्युक्त उभयगुणों का सापेक्ष प्रयोग स्याद्वाद सिद्धान्तका अनुपम निदर्शन है।
जैन-सिद्धान्त एवं न्यायके अद्वितीयवेत्ता श्रद्धेय पण्डित फलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य गुरु गोपालदास बरैयाकी शिष्य-परम्पराके अग्रणी विद्वान् हैं। उनके द्वारा की गई साहित्य सेवा, समाज सेवा, देश सेवा उनके महनीय व्यक्तित्वकी परिचायक है । अभिनन्दनकी पुण्यवेलामें तीर्थतुल्य वन्दनीय-अभिनव टोडरमल पूज्य पण्डित जीके दीर्घायुष्यकी हम अन्तःकरणसे मंगलकामना करते हैं । क्रान्तिकारो व्यक्तित्व .५० कपूरचन्द वरैया, लश्कर
देश, कालकी परिस्थितिके अनुसार भारतीय समाजमें अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। जैन समाज भी इसका अपवाद नहीं । हरिजन-मन्दिर-प्रवेश पर समाजमें बड़ा तूफान मचा। 'वर्ण व्यवस्था पर तरहतरहकी अटकलबाजियां शुरू हुई। उस समय दो तरहकी धारणाएँ प्रचलित थीं। एक वह वर्ग था जो इस व्यवस्थाको जन्मना सिद्ध करनेपर उतारू था, दुसरा वर्ग कर्मणा (गुण, स्वभाव व आजीविका) का पक्षपाती था। दोनों ओरसे इस सम्बन्धमें काफी कहा और लिखा गया (ट्रेक्टोंके माध्यमसे) पंडितजी कब मौन रहने वाले थे? 'जैनधर्म और वर्ण व्यवस्था' में आपने लिखा कि 'जाति नाम कर्मके उदयसे सभी मनुष्योंकी ज एक है, यदि उसके चार भेद माने भी जाते हैं तो केवल आजीविकाके कारण ही। चार वर्णोकी सत्ता मनुष्यके अपने गुण, कर्म स्वभाव व वृत्तिके आधारसे है, अन्य किसी प्रकारसे नहीं।
'वादे-वादे जायते तत्त्वबोध.' वाद-विवादसे तत्वबोध पैदा होता है। किसके लिये ? जो स्वयं वीतरागभाव (तटस्थबुद्धि) से तत्त्वोंका निर्णय करना चाहते हैं ।
साहित्यिक सेवाओं के अलावा आपकी सामाजिक गतिविधियाँ भी क्रान्तिकारी रही हैं। बन्देलखण्ड में गजरथ-विरोधी आन्दोलन चला जिसमें आपने भाग लेकर अनशन तक किया, यही नहीं दस्साओंको प्रजाधिकार दिलाने में सक्रिय भूमिका निभाई । पंडित जी कहा करते है कि सामाजिक क्षेत्रमें मतभेद हाना बुरी बात नहीं, द्वन्द्वका भाव नहीं होना चाहिए।
वृद्धावस्था होते हुए भी आपमें अभी युवकोचित उत्साह है । मैं आपके यशस्वी जीवन वृद्धि की कामना करता हूँ और चाहता हूँ कि आप इसी प्रकार जिनवाणी माताकी सेवामें निरन्तर तत्पर रहकर स्वपर कल्याण करते रहें।
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