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३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ अद्वितीय साहित्य सेवी •सवाई सिंघई सेठ हरिश्चन्द्र, सुमेरचन्द्र जैन, जबलपुर
आज मुझे करणानुयोगके उस उद्भट विद्वान्के प्रति शुभकामनाएं व्यक्त करनेका सौभाग्य प्राप्त हो रहा है जिसने अमूल्य साहित्य उद्धारका महान कार्य करके अपने जीवनको सफल बनाया है। यद्यपि अनेक विद्वान् जैनसिद्धान्त ग्रन्थोंके उद्धार कार्यमें संलग्न रहे हैं किन्तु करणानुयोगकी कठिनतम गुत्थियोंको सुलझाने में आपका जो स्थान रहा है ऐसा विद्वान् भारतमें दूसरा नहीं है। पुरातन जिनधर्मके साहित्यका जो प्रकाश आप लाये हैं वह दि० जैन समाजकी अजर-अमर और अमूल्य निधि है। जबलपुरकी जैन समाजसे आपका अतिशय लगाव है। पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजीके सानिध्यमें जबलपुरमें जब वाचना हई तब अन्य विद्वानोंके साथ आप काफी समय तक उसमें सक्रिय रूपसे संलग्न रहे। इस तरह हम किन शब्दोंमें उनका गुणानुवाद करें? बस ! यही कामना है कि आप दीर्घायु हों। श्रुत देवता सदृश व्यक्तित्व .५० ज्ञानचन्द्र जैन 'स्वतन्त्र', गंजबासौदा
आदरणीय श्रद्धेय पूज्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य मेरी दृष्टिमें श्रुत देवता तो हैं ही पर वे विद्वत् समाजके पितामह भी हैं और मैं उनको अपने पितामहके तुल्य मानता हूँ।
पूज्य पंडित जी अद्भत प्रज्ञाके धनी हैं । आपकी विवेचना शक्ति, तर्कणा शक्ति और सूझबूझ अनोखी है। वस्तु स्वरूपको समझानेकी शैली इतनी सहज, सरल एवं सरस है कि श्रोतागण मन्त्रमग्धसे रह जाते हैं।
माँ सरस्वतीका जिसपर वरद हस्त रहा, ऐसे ज्ञानके भंडार विद्वत तिलक, विद्वत शिरोमणि, आर्यपुरुष पं० फूलचन्द्रजी हमारे समाजकी दिव्य एवं अनुपम निधि हैं। पंडित जीमें यह विशेषता है कि आगमके आधार पर निष्पक्ष बोलते है। प्रसंगवश खरी-खरी कहने में चूकते नहीं, वह भी समताके दायरेमें रहकर। प्रकृतिसे सरल भद्र शांत एवं व्यक्तित्वके धनी हैं। इतना ही नहीं, आपका व्यक्तित्व दूसरोंके प्रति प्रेरणास्पद रहा है।
ऐसे श्रुतदेवताके चरणोंमें मेरे शतशः वंदन प्रणमन एवं नमन हैं। सरलताको प्रतिमूर्ति • डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी
पूज्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य उस कोटिके भव्य जीव हैं जिनमें ज्ञानकी अगाधता तो है परन्तु अहंकारादिका अत्यन्ताभाव है । सरलताकी वह साक्षात् प्रतिमूर्ति हैं।
वाणीकी मधुरता और ज्ञानदानकी तीव्र इच्छा सदैव उनके मुखारविन्दकी शोभाको बढ़ाती रहती है। कभी भी कोई उनके पास किसी भी कार्यसे क्यों न गया हो कभी खाली हाथ नहीं लौटा । धनका वैभव तो नहीं है परन्तु धनवानोंसे अधिक प्रेम धन उनके पास है। फलतः रूखा-सुखा जो भी सत्कार उनसे प्राप्त होता है उसकी मिठास सम्भवतः छप्पन प्रकारके व्यञ्जनोंसे भी प्राप्तव्य नहीं है ।
बाह्यदृष्टिसे कोई इन्हें पहचान नहीं सकता कि ये महातपस्वी हैं । जलसे भिन्न कमलको तरह गृह थी में रहकर तप-साधना करना सबसे कठिन है । लोभ, क्रोध, माया, चापलूसी, अहंकार आदि भाव जो आत्माके विभाव परिणाग है, से कोसों दूर हैं । सरलता, ज्ञानदान आदि गुण उनके शरीरके अभिन्न अङ्ग है। ऐसे समर्पित व्यक्तित्वके धनी एवं सरलताके प्रतिमूर्ति पण्डितजीके प्रति मेरा शत शत वन्दन ।
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