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मनुस्मृति
शारीरिक दण्ड के ढंग, शारीरिक दण्ड से ब्राह्मणों को छुटकारा; तौल एवं बटखरे; न्यूनतम, मध्यम एवं अधिकतम अर्थ-दण्ड; ब्याज-दर, प्रतिज्ञाएँ, प्रतिकूल (विपक्षी के) अधिकार से प्रतिज्ञा, सीमा, नाबालिग की भूमि-सम्पत्ति, धन-संग्रह, राजा की सम्पत्ति आदि पर प्रभाव नहीं पड़ता ; दामदुपट का नियम ; बन्धक ; पिता के कौन-से ऋण पुत्र नहीं देगा; सभी लेन-देन को कपटाचार एवं बलप्रयोग नष्ट कर देता है; जो स्वामी नहीं है उसके द्वारा विक्रय ; स्वत्व एवं अधिकार; साझा; प्रत्यादान; मजदूरी का न देना; परम्पराविरोध; विक्रयविलोप; स्वामी एवं गोरक्षक के बीच का झगड़ा, गाँव के इर्द-गिर्द के चरागाह ; सीमा-संघर्ष ; गालियाँ (अपशब्द), अपवाद एवं पिशुन-वचन; आक्रमण, मर्दन एवं कुचेष्टा; पृष्ठभाग पर कोड़ा मारना; चोरी, साहस (यथा हत्या, डकैती आदि के कार्य); स्वरक्षा का अधिकार; ब्राह्मण कब मारा जा सकता है। व्यभिचार एवं बला. कार, ब्राह्मण के लिए मत्य-दण्ड नहीं, प्रत्यत देश-निकाला; माता-पिता, पत्नी, बच्चे कभी भी त्याज्य नहीं हैं; चंगियाँ एवं एकाधिकार : दासों के सात प्रकार: (१) पति-पत्नी के न्याय्य (व्यवहारानंकल) कर्तव्य, स्त्रियों की भर्त्सना, पातिव्रत की स्तुति ; बच्चा किसको मिलना चाहिए, जनक को या जिसकी पत्नी से वह उत्पन्न हुआ है; नियोग का विवरण एवं उसकी भर्त्सना ; प्रथम पत्नी का कब अतिक्रमण किया जा सकता है; विवाह की अवस्था; बँटवारा, इसकी अवधि, ज्येष्ठ पुत्र का विशेष भाग; पुत्रिका, पुत्री का पुत्र, गोद का पुत्र, शूद्र पत्नी से उत्पन्न ब्राह्मणपुत्र के अधिकार; बारह प्रकार की पुत्रता; पिण्ड किसको दिया जाता है, सबसे निकट वाला सपिण्ड उत्तराधिकार प्राता है; सकुल्य, गुरु एवं शिष्य उत्तराधिकारी के रूप में; ब्राह्मण के धन को छोड़कर अन्य किसी के धन का अन्तिम उत्तराधिकारी राजा है; स्त्रीधन के प्रकार; स्त्रीधन का उत्तराधिकार; वपीयत से हटाने के कारण ; किस सम्पत्ति का बँटवारा नहीं होता; विद्या के लाभ, पुनर्मिलन; माता एवं पितामह
के रूप में; बाँट दी जानेवाली सम्पत्ति; जआ एवं पुरस्कार, ये राजा द्वारा बन्द कर दिये जाने चाहिए ; पंच महापाप, उनके लिए प्रायश्चित्त; ज्ञात एवं अज्ञात (गुप्त) चोर; बन्दीगृह ; राज्य के सात अंग; वैश्य एवं शूद्र के कर्तव्य ; (१०) केवल ब्राह्मण ही पढ़ा सकता है; मिश्रित जातियाँ; म्लेच्छ, कम्बोज, यवन, शक, सबके लिए आचार-नियम; चारों वर्गों के विशेषाधिकार एवं कर्तव्य, विपत्ति में ब्राह्मण की वृत्ति के साधन ; ब्राह्मण कौन-से पदार्थ न विक्रय करे; जीविका-प्राप्ति एवं उसके साधन के सात उचित ढंग; (११) दान-स्तुति ; प्रायश्चित्त के बारे में विविध मत; बहुत-से देखे हुए प्रतिफल ; पूर्वजन्म के पाप के कारण रोग एवं शरीर-दोष ; पंच नैतिक पाप एवं उनके लिए प्रायश्चित्त ; उपपातक और उनके लिए प्रायश्चित्त; सान्तपन, पराक, चान्द्रायण जैसे प्रायश्चित्त ; पापनाशक पवित्र मन्त्र; (१२) कर्म पर विवेचन ; क्षेत्रज्ञ, भूतात्मा, जीव; नरक-कष्ट ; सत्त्व, रजस् एवं तमस् नामक तीन गुण; निःश्रेयस की उत्पत्ति किससे होती है; आनन्द का सर्वोच्च साधन है आत्म-ज्ञान ; प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्म; फलप्राप्ति की इच्छा से रहित होकर जो कर्म किया जाय वही निवृत्त है; वेद-स्तुति ; तर्क का स्थान; शिष्ट एवं परिषद्; मानव शास्त्र के अध्ययन का फल ।।
मनु को अपने पूर्व के साहित्य का पर्याप्त ज्ञान था। उन्होंने तीन वेदों के नाम लिये हैं और अथर्ववेद को अथांगिरसी श्रुति (११.३३) कहा है। मनुस्मृति में आरण्यक, छ: वेदांगों, धर्मशास्त्रों की चर्चा आयी है। मनु ने अत्रि, उतथ्यपुत्र (गौतम), भृगु, शौनक, वसिष्ठ, वैखानस आदि धर्मशास्त्रकारों का उल्लेख किया है। उन्होंने आख्यान, इतिहास,.पुराण एवं खिलों का उल्लेख किया है। मनु ने वेदान्त की भाँति ब्रह्म का वर्णन किया है, लेकिन यहां यह भी कल्पना की जा सकती है कि उन्होंने उपनिषद् की ओर संकेत किया है। उन्होंने 'वेदबाह्याः स्मृतयः' की चर्चा करके मानो यह दर्शाया है कि उन्हें विरोधी पुस्तकों का पता था। हो सकता है कि ऐसा लिखकर उन्होंने बौदों, जैनों आदि की ओर संकेत किया है। उन्होंने धर्म-विरोषियों और उनकी
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