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संन्यासी एवं धर्मनिर्णय
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की गद्दियों के शंकराचार्य से भी राय ली जाती थी। किन्तु अंग्रेजी शासन काल में शंकराचार्यों ने धार्मिक मामलों में सम्मति देने, जातिच्युत करने या जाति में सम्मिलित कर लेने का पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया था ।
गौतम (२८१४६) ने लिखा है कि परिषद् में शिष्ट लोगों को रहना चाहिए। कतियपय स्मृतियों ने शिष्ट की परिभाषा विभिन्न ढंग से की है। बौधायनधर्मसूत्र ( १।१।५-६ ) के मत से “शिष्ट वे हैं, जो मत्सर एवं अहंकार से दूर हों, जिनके पास उतना अन्न हो जो एक कुम्भी में अट सके, जो लोभ, कपट, दर्प, मोह, क्रोष आदि से रहित हों । शिष्ट वे हैं, जो नियमानुकूल इतिहास एवं पुराणों के साथ वेदाध्ययन कर चुके हों और जो वेद में उचित संकेत पा सकें तथा जो अन्य लोगों को वेद की बातें मानने के लिए प्रेरित कर सकें। १११७ 1 शिष्टों के विषय में और देखिए वसिष्ठधर्मसूत्र (१।६), मत्स्यपुराण ( १४५१३४-३६) एवं वायुपुराण (जिल्द १, ५९।३३-३५) ।
शिवाजी की मन्त्रिपरिषद् में एक मन्त्री (पंडितराव ) भी था, जो धार्मिक मामलों तथा अन्य बातों में शिष्ट लोगों की सम्मतियों का आदर करता था। पंडितराव धर्म या प्रायश्चित्त-सम्बन्धी संशयपूर्ण मामलों में वाई, नासिक, कराड आदि स्थानों के ब्राह्मणों की सम्मति लिया करते थे। पंडितरावं इस प्रकार बलपूर्वक मुसलमान बनाये गये ब्राह्मणों को जाति में सम्मिलित कराते थे ।
कमी-कमी संकेश्वर मठ के महन्त भूमि एवं ग्रामों से सम्बन्धित मामलों में भी फैसला देते थे। राजाराम नामक राजा ने श्रीकराचार्य नामक व्यक्ति को एक ग्राम का दान दिया था, जिसको लेकर एक विवाद खड़ा हुआ और उसके पाँच सम्बन्धियों ने उस ग्राम पर अपने अधिकार भी जताने आरम्भ कर दिये। यह मामला करवीर के शंकराचार्य के समक्ष उपस्थित किया गया, जिन्होंने विज्ञानेश्वर, व्यवहारमयूख एवं दानकमलाकर के प्रमाणों के आधार पर यह तय किया कि यद्यपि ग्राम के दान का लेख्य-प्रमाण पाँच व्यक्तियों के नाम से हुआ है किन्तु वास्तविक अधिकारी श्रीकराचार्य ही हैं । इसी प्रकार करवीर मठ के महन्त की एक आज्ञा का पता चला है, जिससे यह व्यक्त होता है। कि उन्होंने एक ब्राह्मण के यहाँ अन्य ब्राह्मणों को भोजन कर लेने को कहा है। बात यह थी कि उस ब्राह्मण की स्त्री का एक गोसावी से अनुचित सम्बन्ध था। जब ब्राह्मण ने उचित प्रायश्चित्त कर लिया तो महन्त ने उस प्रकार की आशा निकाली। इसी प्रकार बहुत से ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं, जिनसे पता चलता है कि मध्यकाल में शिष्टों, विद्वान् ब्राह्मणों एवं महन्तों को बहुत से ऐसे अधिकार प्राप्त थे, जिनके द्वारा वे धार्मिक आदि मामलों में निर्णय दे सकते थे ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सैकड़ों वर्षों तक विद्वान् ब्राह्मण लोग धार्मिक मामलों एवं आचार-सम्बन्धी पापों एवं उनके प्रायश्चित्तों के विषय में निर्णय दिया करते थे। अंग्रेजी राज्य की स्थापना के पूर्व तक यही दशा थी और विद्वान् ब्राह्मणों, शिष्टों एवं आचारवान् धर्मशास्त्रियों से समन्वित परिषदें कठिन एवं संशयात्मक मामलों में निर्णय दिया करती थीं। कुछ दिनों से और वह भी कभी-कभी मठों के महन्त लोग संन्यासी होने के नाते निर्णय देने लग गये । बहुधा शंकराचार्य पदधारी व्यक्ति जो धर्मशास्त्र का 'क' अक्षर भी नहीं जानते थे, कुछ स्वार्थी जनों के फेर में पड़कर अपनी मुहर लगा दिया करते थे । ब्रास्तव में धार्मिक तथा संशयात्मक विषयों का निर्णय विद्वान् लोगों के हाथ में ही रहना चाहिए।
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१७. शिष्टाः खलु विगतमत्सरा निरहंकाराः कुम्भोधान्या अलोलुपा बम्भवर्पलाभमोहक्रोषविवर्जिताः । धर्मेणाधिगतो येषां वेदः सपरिबृंहणः । शिष्टास्तदनुमानज्ञाः श्रुतिप्रत्यक्षहेतवः ॥ बौ० ष० स० १|१|५-६ । और देखिए मनु (१२/१०९) एवं वसिष्ठ (६०४३), शिष्टः पुनरकामात्मा । वसिष्ठ ११६ | मिलाइए महाभाष्य, जिल्व ३, पृ० १७४ एतस्मिन्नार्यनिवासे ये ब्राह्मणाः कुम्भीधान्या अलोलुपा अगृह्यमाणकारणाः किचिदन्तरण कस्याश्चिर faster: पारगास्तत्रभवन्तः शिष्टाः । "
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