Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 542
________________ अग्निहोत्र उपरान्त? इस विषय में मतभेद है। कुछ लोगों के मत से अग्निहोत्र के पूर्व गृह्याम्नि में होम होना चाहिए और कुछ लोग कहते हैं कि वैदिक अग्निहोत्र के उपरान्त ही गृह्याग्नि में होम होना चाहिए। सन्यावन्दन के उपरान्त महस्थ या तो गार्हपत्याग्नि एवं दक्षिणाग्नि के बीच में आहवनीयाग्नि की ओर जाता है या इन दोनों अग्नियों के स्थलों के रक्षिण ओर के मार्ग से आहवनीयाग्नि की प्रदक्षिणा कर दक्षिण में अपने स्थान पर बैठ जाता है और उसकी पत्नी भी अपने स्थान पर बैठ जाती है (कात्या०४।१३।१२ एवं ४।१५।२, आप०६।५।३ तथा कात्या० ४११३।१३ एवं आप० ६।५।१-२)। गृहस्थ 'विद्युदसि विद्या मे पाप्मानमृतात्सत्यमुपैमि मयि श्रद्धा' (आप० ६।५।३) नामक मन्त्र के साथ आचमन करता है, उसकी पत्नी भी आचमन करती है। इसके उपरान्त पति एवं पली अग्निहोत्र होने तक मौन साधे रहते हैं। बिना पली वाले गृहस्थ भी दोनों समय अग्निहोत्र सम्पादित कर सकते हैं (ऐतरेयबा० ३२२८)। तीनों अग्नियों (गार्हपत्य, माहवनीय एवं दक्षिण) के लिए परिसमूहन (गीले हाथ से उत्तर पूर्व से उत्तर तक पोंछने) का कार्य अध्वर्यु ही करता है। अध्वर्यु ही आहवनीयाग्नि के चारों ओर दर्भ बिछाता है अर्थात् परिस्तरण करता है। पूर्व एवं पश्चिम वाले कुशों की नोक दक्षिण की ओर तथा उत्तर एवं दक्षिण वालों की पूर्व की ओर होती है। परिस्तरण-कृत्य पूर्व से प्रारम्भ कर क्रम से दक्षिण पश्चिम तथा उत्तर की ओर किया जाता है। इसी प्रकार अध्वर्यु अन्य दोनों वैदिक अग्नियों (गार्हपत्य एवं दक्षिणाग्नि) की चारों दिशाओं में दर्भ बिछा देता है। दाहिने हाथ में जल लेकर वह आहवनीयाग्नि के चतुर्दिक (उत्तरपूर्व से आरम्भ कर पुनः उत्तर दिशा में समाप्त कर) छिड़कता है। इसके जपसन्त वह पश्चिम की ओर से अजस्र धारा गिराता आहवनीयाग्नि से गार्हपत्याग्नि तक चला जाता है। इसके उपरान्त पर्युक्षण-कृत्य किया जाता है जो गार्हपत्य से आरम्भ कर बायीं ओर से दाहिनी ओर बढ़कर दक्षिणाग्नि तक जल छिड़कने के रूप में अभिव्यक्त होता है। या सर्वप्रथम गार्हपत्याग्नि के चारों ओर जल छिड़का जा सकता है और तब दक्षिणाग्नि के चारों ओर। इसके उपरान्त गार्हपत्य से पूर्व की ओर आहवनीय के चतुर्दिक् जल की धारा गिरायी जाती है (आश्व० २।२।१४)। मन्त्रोच्चारण के विषय में देखिए आश्व० (२।२।११-१३), कात्या० (४।१३।१६-१८) एवं आप० (६।५।४)। जो व्यक्ति केवल पवित्र कर्तव्य समझकर अग्निहोत्र करता है उसे गाय के दूध से होम करना चाहिए, किन्तु जो व्यक्ति कई ग्राम या अधिक भोजन या शक्ति या यश चाहता है, उसे चाहिए कि वह यवाग, भात, दही या घत से होम करे (आश्व०२।३।१-२)। इसके उपरान्त गाय दुहने वाले व्यक्ति को आज्ञा दी जाती है। गाय यज्ञ-स्थल की दक्षिण दिशा में खड़ी रखनी चाहिए और उसका बच्चा बछड़ा होना चाहिए। गाय दुहते समय बछड़े को गाय के दक्षिण में रखना चाहिए। पहले बछड़ा दूध पी ले तब उसे हटाकर दुहना चाहिए। गाय को दुहने वाला शूद्र नहीं होना चाहिए ७. संध्यावन्दनानन्तरं पूर्वमग्निहोत्रहोमस्ततः स्मार्तेऽग्नौ। तदुक्तम्-होम वैतानिके कृत्वा स्मार्तं कुर्याद् विचक्षणः। स्मृतीनां वेबमूलत्वात्स्मा केचित्पुरा विदुः ॥ इति । कात्या० ४।१३।१२ का भाष्य; चन्द्रोदय में उड़त भरवाज । देखिए आचाररत्न (पृ. ५२)। ८. कात्या० (४।१३) के भाष्य में आया है-उपवेशनव्यतिरिक्तं पत्नी किमपि न करोतीति संप्रदायः । तच्च सापुतरम् । इससे स्पष्ट है कि स्त्रियों की यज्ञ-कृत्य-सम्बन्धी सारी महत्ता क्रमशः विलीन होती चली गयी और वे अब यज्ञादि कमों में पतियों को बगल में बैठी सारे कृत्यों को मौन रूप से देखती रहती हैं। अब तो केवल यजमान एवं पुरोहित मात्र वाचाल रहते हैं, स्त्रियाँ मूक बनी गठरी-सी बैठी रहती हैं। जैमिनि (६।१।१७-२१) ने लिखा है कि यश-सम्पादन में पति एवं ..त्नी को एक-दूसरे से सहयोग करना चाहिए, किन्तु पुनः इसी सूत्र में आया है (६।११२४) कि पत्नी यज्ञ के सारे कार्य नहीं कर सकती, वह केवल उतना ही बोलेगी जिसके लिए पद्धति में छूट है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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