________________
५४८
धर्मशास्त्र का इतिहास में आतिथ्येष्टि की जाती है। आसनादि की व्यवस्था की जाती है और गाड़ी से सोम को उतारकर उसके लिए बने विशिष्ट आसन पर मृगचर बिछाकर उसे विधिवत् रखा जाता है। आतिथ्येष्टि के प्रमुख देवता हैं विष्णु और उनके लिए नौ कपालों वाली रोटी बनती है। अग्नि की उत्पत्ति घर्षण से की जाती है। अन्य विधियों के विस्तार के
खए आपस्तम्ब (१०॥३) एवं कात्यायन (८१)। इडा खा लेने के उपरान्त ताननत्र कर्म किया जाता है। इस कृत्य में यजमान एवं सभी पुरोहित तननपात (तीव्र वेग से चलने वाली वाय) का नाम लेकर प्रण करते हैं कि वे एक-दूसरे का अमंगल नहीं करेंगे। इस कृत्य के उपरान्त यजमान को अवान्तर-दीक्षा दी जाती है, जिसमें यजमान मन्त्र (वाजसनेयी संहिता ५।६) के साथ आहवनीयाग्नि में समिधा डालता है, उसकी पत्नी मौन रूप से गाईपा त्याग्नि में समिधा डालती है। मदन्ती नामक पात्र के गर्म जल को यजमान तथा सभी पुरोहित स्पर्श करते हैं। __ अवान्तर-दीक्षा के उपरान्त प्रवयं तथा उसके उपरान्त उपसद् (उपसद् अवयं के पूर्व भी हो सकता है-आप० ११।२।५, सत्याषाढ़ ७४,पृ० ६६२) नामक कृत्य किये जाते हैं। ये दोनों प्रातः एवं अपराह्न दो बार होते हैं। यह क्रम तीन दिनों तक (दूसरे, तीसरे तथा चौथे दिन तक) चलता रहता है, किन्तु यह तभी होता है जब सोम का रस पांचवें दिन निकाला जाय। यदि सोम का रस सातवें दिन या और आगे चलकर निकाला जाय तो प्रवर्यो एवं उपसदों की संख्या बढ़ा दी जाती है (आप० १५।१२।५)। आतिथ्या में प्रयुक्त बहि, प्रस्तर एवं परिषि की विधि उपसदों एवं अग्नीषोमीय पशु के कृत्यों में भी की जाती है। अब हम संक्षेप में प्रवयं, उपसद्, अग्नीषोमीय पशु आदि का वर्णन उपस्थित करते हैं।
प्रवर्य--बहुत-से सूत्रों (यथा-आप० १५।५-१२, कात्या० २६, बौधा० ९।६) में प्रवर्दी का वर्णन पृथक् रूप से पाया जाता है। इस कृत्य से यजमान को मानो एक नवीन देवी शरीर प्राप्त होता है (ऐतरेय ब्राह्मण ४.५)। यह एक स्वतन्त्र या अपूर्व कृत्य माना गया है न कि किसी कृत्य का परिमार्जित रूप। आप० (१३।४।३-५) के मतानुसार यह कृत्य प्रत्येक अग्निष्टोम में आवश्यक नहीं माना जाता। वाजसनेयी संहिता (२९।५) में जो 'धर्म' कहा गया है वह सूर्य का द्योतक है और सम्राट नाम से यज्ञ का अधिष्ठाता माना गया है। इसी प्रकार गर्म दूध दैवी जीवन एवं प्रकाश का द्योतक माना जाता है (देखिए ऐतरेय ब्राह्मण ४११, शतपथ ब्राह्मण १४११-४, तैत्तिरीयारण्यक ४११-४२, ५।१-१२)। मिट्टी का एक पात्र बनाया जाता है जिसकी महावीर संज्ञा है। इसमें एक छिद्र होता है जिसके द्वारा तरल पदार्थ गिराया जाता है। इसी प्रकार दो अन्य महावीर पात्र होते हैं। पिनवन नामक अन्य दो दुग्धपात्र होते हैं और रौहिण नामक दो प्यालियां होती हैं जिनमें रोटियां पकायी जाती हैं। महावीर, पिनवन एवं रोहिण गार्हपत्याग्नि से प्रज्वलित घोड़े के गोबर की अग्नि में तपाये जाते हैं (कुछ लोगों के मत से ये पात्र दक्षिणाग्नि में तपाये जाते हैं)। रोहिण में दो पुरोडाश पकाकर प्रातः एवं सायं दिन तथा रात्रि के लिए आहुति रूप में दिये जाते हैं। महावीर पात्र को मिट्टी से बने उच्च स्थल पर रखकर उसके चतुर्दिक अग्नि जलाकर उसमें पी छोड़ा जाता है। प्रमुख महावीर पात्र को प्रथम पात्र माना जाता है। अन्य दो महावीर पात्रों को वस्त्र से ढककर सोम वाले स्थान से उत्तर दिशा में बड़ी आसन्दी पर रख दिया जाता है। प्रमुख पात्र के उबलते हुए पी में गाय तवा बकरे वाली बकरी का दूध मिलाकर छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार से मिश्रित गर्म दूध को धर्म कहा जाता है जो अश्विनी, वायु, इन्द्र, सविता, गृहस्पति एवं यम को आहुति रूप में दिया जाता है। यजमान (पुरोहित लोग केवल गंध लेते हैं) शेष दूष को उपयमनी से पी जाता है। यह सब करते समय होता मन्त्रों का पाठ करता है और प्रस्तोता साम-गान करता जाता है। इस प्रकार इस सम्पूर्ण कृत्य को प्रवयं कहा जाता है।
उपसद-यह एक इष्टि है। बहुत-सी क्रियाएँ (यथा-अग्न्यन्वापान), जो दर्शपूर्णमास में की जाती है, इस इष्टि में नहीं की जाती। इसमें घृत की आहुतियां अग्नि, विष्णु एवं सोम को जुहू से दी जाती है। बातिप्या नामक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org