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अग्निष्टोम यज्ञ
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अर्थात् "सोम (सोम के) पात्रों में वैसा ही दीखता है जैसा कि जल में चन्द्रमा ।" अथर्ववेद में आया है - "सोमो मा देवो मुञ्चतु यमाहुश्चन्द्रमा इति” (१।१।६।७ ) अर्थात् "वह देवता जिसे लोग चन्द्रमा कहते हैं, सोम है।" कई स्थानों पर सोम को इन्दु कहा गया है ( ऋ० ९१८६।२४, २६, ३७, ८ ४८ २, ४, ५, १२, १३) । कहा जाता है कि सोम मूजवान् (पर्वत) (ऋ० १०।३४।१) पर उगता था, और आर्जीकीय देश में सुषोमा नदी पर पाया जाता था (ऋ० ८।१६४।१ ) । स्पष्ट है, ऋग्वेद में भी सोम के विषय में दन्तकथाएँ मात्र प्रचलित थीं । ऋग्वेद (९।८६।२४) में आया है कि सुपर्ण (गरुड़ पक्षी ? ) इसे स्वर्ग से यहाँ ले आया। इसी प्रकार ऋग्वेद (१।९३।६) में पुनः आया है कि इसे कोई श्येन (बाज पक्षी) ले आया । ब्राह्मणों के काल में यह बहुत कठिनता से प्राप्त होता था । शतपथब्राह्मण ( ४/५/२०) ने सोम के स्थान पर कई अन्य पौधों के नाम गिनाये हैं जिनमें फाल्गुन पौधा, दूब एवं हरे कुश प्रसिद्ध हैं । ताड्यब्राह्मण ( ९।३।३ ) का कहना है कि यदि सोम न मिले तो प्रतीक से रस निकाला जा सकता है। पूतीक के विषय में आश्वलायन (६४८/५६) ने भी लिखा है । किन्तु पूतीक के बारे में कुछ नहीं ज्ञात है। दक्षिण में जब कभी सोमयाग किया जाता है तो सोम के स्थान पर 'शेर' (मराठी) नामक पौधा काम में आता है ।
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