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धर्मशास्त्र का इतिहास (२२) आदि ने कुछ अन्य एकाह सोमयज्ञों का वर्णन किया है, यथा बृहस्पतिसव, गोसव, श्येन, उद्भिद्, विश्वजित्, व्रात्यस्तोम आदि, जिनका वर्णन यहाँ स्थानाभाव से नहीं किया जायगा।'
अहीन यज्ञ वे हैं जिनमें सोमरस का निकालना दो से बारह दिनों तक होता रहता है, जिनका अन्त अतिरात्र के साथ होता है तथा जो दीक्षा एवं उपसद् दिनों को मिलाकर एक मास तक होते हैं। इनका आरम्भ पूर्णमासी को होता है। इनमें कुछ यज्ञ ऐसे हैं जो दो दिनों, तीन दिनों (यथा गर्गत्रिरात्र), चार दिनों, पाँच दिनों (यथा पञ्चरात्र, जिनमें पञ्चशारदीय भी एक यज्ञ है), छ: दिनों तक तथा इसी प्रकार कई दिनों तक चलते रहते हैं। इन्हीं अहीन यज्ञों में अश्वमेध एवं द्वादशाह यज्ञ भी हैं, जिनका संक्षिप्त वर्णन यहाँ उपस्थित किया जायगा।
द्वादशाह एवं सत्र यह यज्ञ अहीन एवं सत्र (आश्व० १०५।२) दोनों है। इसके कई रूप हैं, जिनमें मरत-द्वादशाह (आश्व० २०१५।८, आप० २१३१४१५) अति प्रसिद्ध है। बारह दिनों में प्रायणीय (आरम्भिक कृत्य-अतिरात्र) पृष्ठ्य, षडह (छः दिनों तक), छन्दोमस नामक उक्थ्य (तीन दिनों तक), अत्यग्निष्टोम (दसवें दिन) एवं उदयनीय (अन्तिम कृत्य जो अतिरात्र होता है) आदि कृत्य किये जाते हैं। अहीन एवं सत्र में विशिष्ट अन्तर ये हैं-(१) सत्र केवल ब्राह्मणों द्वारा तथा द्वादशाह तीनों उच्च वर्णो द्वारा सम्पादित होता है। (२) सत्र लम्बी अवधि (एक वर्ष या इससे भी अधिक) तक चलता रहता है, किन्तु द्वादशाह की अवधि केवल बारह दिनों तक है। (३) सत्र में यजमान एवं पुरोहितों में कोई अन्तर नहीं होता, समी यजमान होते हैं, किन्तु द्वादशाह में ऐसी बात नहीं होती। (४) सत्र में दक्षिणा नहीं होती, क्योंकि सभी यजमान होते हैं। कात्यायन (१२।११४) का कहना है कि वैदिक उक्तियों में जहाँ 'उपयन्ति' एवं 'आसते'
४. एकाह यजों में विश्वजित् यज्ञ महत्वपूर्ण है। इसमें यजमान एक सहल गाय या अपने ज्येष्ठ पुत्र के भाग को छोड़कर (भूमि तथा आसामी अर्थात् अपने खेतों में काम करने वाले श्रमिक शूद्रों को छोड़कर) अपनी सम्पूर्ण सपत्ति दान में दे देता है (जैमिनि ४।३।१०-१६, ६७४१-२०, ७।३।६-११, १०१६।१३) । इस यज्ञ के उपरान्त यवमान उदुम्बर पेड़ के नीचे तीन दिनों तक रहकर केवल फल एवं कन्द-मूल परं निर्वाह करता है, तीन दिनों तक वह निषादों की बस्ती में रहकर चावल, श्यामाक (साँवा) एवं हरिण के मांस पर निर्वाह करता है, तीन दिनों तक वह वैश्यों (जनों) तथा अन्य तीन दिनों तक क्षत्रियों के साथ रहता है। इसके उपरान्त वह वर्ष भर जो कुछ विया जाय उसे अस्वीकार नहीं कर सकता किन्तु भिक्षा नहीं मांग सकता (फात्या. २२।११९-३३ एवं लाट्यायन० ८।२११-१३) । योसव तो एक अति विचित्र यज्ञ है। तैत्तिरीय ब्राह्मण (२७६) ने संक्षेप में इसका वर्णन किया है। स्वाराज्य का इच्छुक इसे करता है। आप० (२२।१२।१२-२० एवं २२।१३।१-३) ने लिखा है कि इस यज्ञके उपरान्त साल भर पजमान को पशुवत अर्थात् पशु की भाँति आचरण करना पड़ता है, उसे पशु के समान जल पीनर, घास चरना, कुटुम्ब-व्यवहार आदि करना पड़ता है-तेनेष्ट्वा संवत्सरं पशुव्रतो भवति। उपावहायोबकं पिबेत्तृणानि चाच्छिन्द्यात् । उप मातरमियादुप स्वसारमुप सगोत्राम्' (आप० २२॥१३॥१-३)। एक अन्य मनोरंजक एकाह यज्ञ है सर्वस्वार, जो उस व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो यज्ञ करते-करते स्वर्ग की प्राप्ति के लिए मर जाना चाहता है। सायंकाल सोमरस निकालते समय जब आर्भव पवमान स्तोत्र का पाठ होता रहता है, यजमान पुरोहितों से यज्ञ की समाप्ति की बात कहकर अग्नि में प्रवेश कर जाता है। इस यज्ञ को शुनःकर्णोग्निष्टोम कहा जाता है (ताड्य ब्राह्मण १७।१२।५, जैमिनि १०।२।५७-६१)।
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