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अयमेव यज्ञ
अश्वमेघ
अश्वमेध की गणना प्राचीनतम यशों में होती है। ऋग्वेद की १।१६२ एवं १९३ संख्यक ऋचाओं से विदित होता है कि इनकी रचना के पूर्व से ही अश्वमेष का प्रचलन था। यह विश्वास किया जाता था कि अश्वमेघ का अश्व स्वर्ष चला जाता है। अश्व के आगे-आगे एक बकरा ले जाया जाता था (ऋग्वेद १।१६२।२-३ एवं १।१६३।१२ ) । अश्व को आभूषणों से अलंकृत किया जाता था। इस पर स्वरु ( ऋम्वेद १।१६२।९ ) का लेप किया जाता था। यह अग्नि के चारों ओर तीन बार ले जाया जाता था, या इसके चारों ओर तीन बार अग्नि घुमायी जाती मी (ऋ० १।१६२१४) । अ के शव को आवृत करने के लिए एक स्वर्ण-खण्ड के साथ एक परिधान की व्यवस्था होती थी (ऋ. १।१६२।१६ ) । उखा नामक पात्र में अश्व का मांस पकाया जाता था (ऋ० १।१६२।१३) और उसे अग्नि को समर्पित किया जाता था (ऋ० १।१६२।१९) । ऋग्वेद (१।१६२।१८ ) में ३४ पसलियों का उल्लेख हुआ है। बकरी की पसलियों की संख्या २६ बतायी गयी है । लगता है, अश्व के मांस की आहुतियों के समय आगूः, याज्या एवं वषट्कार का वाचन होता था (ऋ० १।१६२।१५) । अश्व को आदित्य, त्रित एवं यम के समान कहा गया है (ऋ० १।१६३।३ ) ।
शतपथ ब्राह्मण (१३।१-५) एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण ( ३।८-९) में अश्वमेघ का वर्णन हुआ है, जिसमें बहुत से ऐसे राजाओं का उल्लेख है जिन्होंने अश्वमेध यज्ञ सम्पादित किया था । तैत्तिरीय ब्राह्मण ( ३३८/९ ) ने अश्वमेघ को राज्य या राष्ट्र कहा है और इस प्रकार उल्लेख किया है—जब अबल व्यक्ति अश्वमेध करता है तो वह फेंक दिया जाता है ( अर्थात् हरा दिया जाता है) । यदि शत्रु अश्व को पकड़ ले तो यज्ञ नष्ट हो जाता है।' सूत्र-ग्रन्थों में ब्राह्मणग्रन्थों की परम्पराएँ पायी जाती हैं। सूत्रों में अश्वमेघ को सोमरस निचोड़ने के तीन दिनों का अहीन माना गया है ( आर० १० ८ ११, कात्या० २०।१।१ की टीका, शांखा० १६।१।२) । सार्वभौम या अभिषिक्त राजा (जो अभी सार्वभौम नहीं हुआ है) अश्वमेध यज्ञ कर सकता था ( आप० २०११।१, लाट्यायन ९।१०।१७ ) । आश्वलायन (१६।६। १) का कहना है (जैसा कि ऐतरेय ब्राह्मण ने राजसूय में महाभिषेक के विषय में उल्लेख किया कि सभी पदार्थों के इच्छुक सभी विजयों के ( अपनी इन्द्रियों पर विजय के लिए भी) अभिलाषियों तथा अतुल समृद्धि के कांक्षियों द्वारा अश्वमेध किया जा सकता है।' फाल्गुन शुक्ल पक्ष के आठवें या नवें दिन या ज्येष्ठ मास के इन्हीं दिनों या कुछ लोगों के मत से आषाढ़ मास के दिनों में ( कात्या० २०११ २-३, लाट्या ० ९१ ९ ६-७ ) अश्वमेघ का प्रारम्भ किया जाता है। आप ० ( २०1१1४ ) के मत से चैत्र की पूर्णिमा को इसका आरम्भ होना चाहिए। इसके प्रारम्भ के लिए चार पात्रों में से चार अंजलि चार मुट्ठी चावल लेकर पकाया जाता है जिसे ब्रह्मोवन कहा जाता है। घी से मिश्रित कर यह चावल चार प्रमुख पुरोहितों (होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा एवं उद्गाता ) को दिया जाता है। इन पुरोहितों में प्रत्येक को एक-एक सहस्र गौएँ
२. राष्ट्र वा अश्वमेषः । परा वा एव सिच्यते योऽनलोऽश्वमेधेन यजते । यदमित्रा अश्वं विम्बेरन् हन्येतास्य यशः । सं० १० ३।८।९। ऐतरेय ब्राह्मण ने अश्वमेष का उल्लेख किया है, किन्तु इसमें राजसूय के महाभिषेक (ऐन्द्र) का उल्लेख हुआ है।
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३. सर्वान् कामानाप्स्यन् सर्वा विजिती विजिगीषमाणः सर्वा व्युष्टीव्यंशिष्यन्नश्वमेधेन यजेत । आदम० १०/६/१; स य इच्छेदेवंवित् क्षत्रियमयं सर्वा जितीजयेतामं सर्वा ल्लोकान्विन्वेतायं सर्वेषां राज्ञां श्रेष्ठ्यमतिष्ठां परमतां गच्छेत साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाभिपत्यमयं समन्तपर्यायी स्यात्सार्वभौमः सार्वायुध आन्तादा परार्थात् पृथिव्यं समुद्रपर्यन्ताया एकराडिति समेतेनंन्द्रेण महाभिषेकण क्षत्रियं शापयित्वाभिषिजेत् । ऐ० ग्रा० ३९।१ । “साम्राज्यम्” से लेकर "एकराडिति" तक सारे शब्द आधुनिक काल तक के ब्राह्मणों को परिचित हैं।
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