________________
अश्वमेध यज्ञ
एवं परिवृक्ती रानियो क्रम से सोने, चाँदी एवं लोहे (संभवतः यहाँ यह ताम्र का ही अर्थ रखता है) की सूइयों से काटती हैं और उसके मांस को निकाल बाहर करती हैं। इसके उपरान्त यज्ञ-सम्बन्धी बहुत-से उत्तर-प्रत्युत्तर पुरोहितों एवं यजमान के बीच चलते हैं, जिन्हें यहाँ देना आवश्यक नहीं है। विभिन्न देवताओं के नाम पर मांस की आहुतियाँ दी जाती हैं। इसके उपरान्त बहुत-से कृत्य किये जाते हैं, जिन्हें स्थानाभाव से हम यहाँ नहीं दे रहे हैं।
इस यज्ञ में बहुत-से दान दिये जाते हैं। सोमरस निकालने के प्रथम एवं अन्तिम दिन में एक सहस्र गौएँ तथा दूसरे दिन राज्य के किसी एक जनपद में रहने वाले सभी अब्राह्मण निवासियों की सम्पत्ति दान दे दी जाती है। विजित देश के पूर्वी भाग की सम्पत्ति होता को तथा इसी प्रकार विजित देश के उत्तरी, पश्चिमी एवं दक्षिणी भागों की सम्पत्ति क्रम से उद्गाता, अध्वर्यु एवं ब्रह्मा तथा उनके सहायकों को दे दी जाती है। यदि इस प्रकार को सम्पत्ति न दी जा सके तो चार प्रमुख पुरोहितों को ४८,००० गौएँ और प्रधानं पुरोहितों के तीन-तीन सहायकों को २४,०००, १२,००० तथा ६,००० गीएँ दी जाती हैं।
प्राचीन काल में भी अश्वमेध बहुत कम होता था। तैत्तिरीय संहिता (५।४।१२।३) एवं शतपथ ब्राह्मण (१॥३॥३॥६) ने लिखा है कि अश्वमेघ एक प्रकार का उत्सन्न (जिसका अब प्रचलन न हो) यज्ञ था। अथर्ववेद (९। ७७-८)ने भी राजसूय, वाजपेय; अश्वमेध, सत्रों तथा कुछ अन्य यज्ञों को उत्सन्न यज्ञ की संज्ञा दी है। अश्वमेध के आरम्म के विषय में कुछ कहना कठिन है। इसकी बहुत-सी बातें विचित्रताओं से भरी हैं, यथा मृत अश्व के पार्श्व में रानी का सोना, गाली-गलौज करना आदि । बहुत-से लेखकों ने अपने तर्क दिये हैं, किन्तु उनमें मतैक्य का अभाव है।
महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में अश्वमेध का वर्णन कुछ विस्तार से हुआ है। यह स्वाभाविक है कि उसमें केवल अति प्रसिद्ध तत्त्व तथा कुछ धार्मिक कृत्यों पर ही अधिक ध्यान दिया गया है। महाभारत (७१।१६) में व्यास ने युधिष्ठिर से कहा है कि अश्वमेध से व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं। चैत्र की पूर्णिमा को इसकी दीक्षा युधिष्ठिर को दी गयी थी (७२।४) । स्फ्य, कूर्च आदि पात्र सोने के थे या उन पर सोने की कलई हुई थी (७२।९-१०)। उन दिनों के सबसे बड़े योद्धा अर्जुन पर साल भर तक चक्कर मारनेवाले अश्व की रक्षा का भार सौंपा गया था, और उसे युद्ध मे बचते रहने को कहा गया था (७२।२३-२४) । घोड़े का रंग कृष्णसार (काले-काले धब्बों का) था (७३।८)। अर्जुन के साथ याज्ञवल्क्य का एक शिष्य तथा बहुत-से विद्वान् ब्राह्मण थे जिन्हें शान्ति करने के कृत्य करने पड़ते थे (७३। १८)। अर्जुन के साथ चलने वाले सैनिकों की संख्या नहीं दी हुई है । अश्व सम्पूर्ण भारत में पूर्व से दक्षिण तथा पश्चिम से उत्तर तक बढ़ता रहा। अपने शत्रुओं से अनेक युद्ध करता हुआ अर्जुन अपने पुत्र, मणिपुर के राजा बभ्रुवाहन के हाथों मारा गया, किन्तु अन्त में वह अपनी स्त्री नागकुमारी उलूपी द्वारा पुनर्जीवित किया गया (अध्याय ८०)। मार्ग में अर्जुन ने अनेक शत्रुओं को हराया किन्तु उन्हें मारा नहीं, प्रत्युत उन्हें यज्ञ में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया। अश्वमेघ का जो यह वर्णन मिलता है वह ऊपर कहे गये वर्णन से सामान्यतः मिलता है। प्रवर्दी तथा सोमरस निकालने का उल्लेख हुआ है। यूपों में ६ बिल्व के, ६ खदिर के, २ देवदार के थे तथा एक श्लेष्मातक का था (८८१२७-२८)। बहुत-सी बातों में अन्तर भी पाया जाता है। वेदी का आकार गरुड़-जैसा था (८८३३२), ईटें सोने की थीं तथा ३०० पशुओं की बलि दी गयी थी। अग्नि-वेदी पर बैल के सिर तथा जल-जन्तु के आकार बने थे। मृत अश्व की बगल में
५. देखिए तैत्तिरीय संहिता में प्रो० कीथ की भूमिका, 'रिलीजन एण्ड फिलासफी आव वी वेद', भाग २, १० ३४५-३४७ तथा 'सेक्रेड बुक आव दी ईस्ट', जिल्द ४४, १० २८-३३। इन प्रन्यों में पाश्चात्य विद्वानों के सिदान्त पड़े जा सकते हैं।
धर्म०-७२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org