Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 597
________________ ५७४ धर्मशास्त्र का इतिहास १०।१९०।३)। पुरुष ने स्वयं यज्ञिय सामग्रियों (हवि) का रूप धारण कर लिया। वर्ष एवं ऋतुओं ने पुनर्निर्माण का रूप धारण कर लिया--विभिन्न भागों में विभाजित पुरुष के पुनरभियोजन एवं पुननिर्माण के पीछे वर्ष एवं विभिन्न ऋतु हैं। इसीलिए मनुष्य को, जो इस प्रकार की अजस्र गतियों का शिशु मात्र है, इस विश्व के पुननिर्माण के लिए अपना कर्तव्य करना चाहिए। वह अपना यह कर्तव्य, अग्नि को प्रजापति के रूप में या उसे परमपूत तथा जीवनाधार एवं सभी क्रियाओं के मूल के रूप में मानकर, अग्नि की पूजा करके सम्पादित कर सकता है। इस प्रकार अग्नि में यज्ञ-वस्तुओं की आहुतियां देकर वह पुनःसृष्टि एवं पुननिर्माण की गति को बढ़ावा दे सकता है। मनुष्य विधाता की सृष्टि की अनुकृति (नकल) ईंटों से बने बड़े-बड़े ढांचों से कर सकता है। शतपथ ब्राह्मण (६।२।२।२१) ने इन मावनाओं की ओर संकेत किया है। शतपथ ब्राह्मण का दसवाँ काण्ड अग्निचयन के रहस्य से सम्बन्धित है। वेदिका के निर्माण में जो कृत्य होते हैं, अथवा जिस प्रकार वेदिका-निर्माण होता है उसमें सृष्टि की पुनःसृष्टि एवं पुननिर्माण की ही गतियाँ प्रतीक रूप में द्योतित हैं। नीचे हम कात्यायन, सत्याषाढ एवं आपस्तम्ब के वर्णन के आधार पर संक्षेप में अग्नि-चयन का वर्णन उपस्थित करेंगे। अग्नि-वेदिका का पांच स्तरों में निर्माण सोमयाग का एक अंग है। किन्तु प्रत्येक सोमयाग में चपन आवश्यक नहीं माना जाता। महावत नामक सोमयाग में ऐसा किया जाता है। हमने ऊपर देख लिया है कि महाव्रत गवान न की समाप्ति के एक दिन पूर्व सम्पादित होता है। जब कोई व्यक्ति अग्नि-वेदिका बनाना चाहता, तो वह सर्वप्रथम फाल्गुन की पूर्णिमा-इष्टि के उपरान्त या माघ की अमावस्या के दिन पाँच पशुओं (यथा मनुष्य, अश्व, बैल, भेड़ एवं बकरे) की बलि देता था। मनुष्य की बलि किसी छिपे स्थान में होती थी। पशुओं के सिर वेदिका में चुन दिये जाते थे, और उनके घड़ उस जल में फेंक दिये जाते थे जिससे मिट्टी सानकर ईंटें बनायी जाती थीं। कात्यायन (१६॥ ११३२) ने लिखा है कि हम विकल्प से पशुओं के स्थान पर उनके सिर के आकार के स्वर्णिम या मिट्टी के सिर बना कर प्रयोग में ला सकते हैं। आधुनिक काल में जब कभी अग्नि-चयन होता है तो इन पांच जीवों की स्वर्णिम बाकुतियाँ ही प्रयोग में लायी जाती हैं। इसके उपरान्त फाल्गुन के कृष्ण पक्ष के आठवें दिन एक अश्व, एक गदहा तथा एक बकरा आहवनोय अग्नि के दक्षिण ले जाये जाते हैं (अश्व सबसे आगे रहता है)। इन पशुओं के मुख पूर्व की ओर होते हैं। जहाँ से मिट्टी ली जाती है वहाँ तक अश्व ले जाया जाता है। आहवनीय अग्नि के पूर्व में एक वर्गाकार गड्ढा खोदा जाता है जिसमें मिट्टी का एक इतना बड़ा घोंधा रख दिया जाता है कि उससे गड्ढा पुनः भर जाता है और उस स्थल का ऊपरी भाग पृथिवी के बराबर ज्यों-का-त्यों हो जाता है। इसके उपरान्त मिट्टी के घोंघे एवं आहवनीय के मध्य की भूमि में चींटियों के ढूह से मिट्टी लाकर इकट्ठी कर ली जाती है। आहवनीय अग्नि के उतर में किसी यज्ञिय वृक्ष का एक बित्ता लम्बा कुदाल रख दिया जाता है। इस कुदाल से गड्ढे में रखी मिट्टी (गीली मिट्टी के धोधे) के ऊपर चीटियों के ढूह वाली मिट्टी रख दी जाती है। अश्व के पैर द्वारा उस गड्ढे की मिट्टी दबा दी जानी है। पुरोहित कुदाल से उस मिट्टी पर तीन रेखाएँ खींच देता है और उसके उत्तर में एक कृष्ण-मृगचर्म बिछा कर उस पर एक कमल-पत्र रख देता है, जिस पर गड्ढे वाली मिट्टी निकाल कर रख दी जाती है। मृगचर्म के किनारे ८. ऐसा लगता है कि मनुष्य, वास्तव में, मारा नहीं जाता था, प्रत्युत छोड़ दिया जाता था। बलि बाला मनुष्य वैश्य या क्षत्रिय होता था (कात्यायन १६।१।१७) । बौधायन (१०।९) के मत से युद्ध में मारे गये मनुष्य तथा अश्व के सिर लाये जाते थे--"संग्रामे हतयोरश्वस्य च वैश्यस्य च शिरसी। दोव्यन्त ऋषन पचन्ते। वृष्णि वस्तं चाहरन्ति । एतत्सर्पशिरः।" देखिए कात्यायन (१६३१३३२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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