Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

View full book text
Previous | Next

Page 598
________________ अधिवषम (वरी-मा) मंज को रस्सी से बांध दिये जाते है। पुरोहित मिट्टी के घोंधे के साथ मृगचर्म उठा लेता है और उसे पूर्व की ओर करके पशुओं के ऊपर रखता है। इस बार पशु उलटीरीति से आते हैं, अर्थात् पहले बकरा आता है और अन्स में अश्व। आपस्तम्ब (१६॥३॥१०) के मत से मिट्टी की खेप गदहे पर रखकर एक शिविर में लायी जाती है। चारों ओर से घिरे शिविर में आहवनीय के उत्तर मिट्टी रख दी जाती है। इसके उपरान्त पुरोहित उस मिट्टी में बकर के बाल मिलाता है और उसे ऐसे जल से सानता है जिसमें पलाश की छाल उबाली गयी हो। उस सनी हुई मिट्टी में वह बाल, लोहे का जंग एवं छोटे-छोटे प्रस्तरखण्ड मिला देता है। इस मिट्टी से यजमान की पत्नी या पहली पत्नी (यदि कई पलियाँ हों तो) प्रथम ईट का निर्माण करती है जिसकी अवाढा संज्ञा है। इस ईंट का आकार चतुर्भुज होता है और यह यजमान के पांव के बराबर होती है। ईंट पर तीन रेखाएँ खींच दी जाती हैं। यजमान सनी हुई मिट्टी से एक उखा (अग्नि-पात्र) बनाता है। वह विश्वज्योति नामक तीन अन्य ईंटें बनाता है जिन पर तीन ऐसी रेखाएं बना दी जाती हैं जो प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय ईंटों की द्योतक हो जाती हैं। सनी मिट्टी का शेष भाग, जिसे उपशव कहा जाता है, पृषक रख दिया जाता है। उखा को घोड़े की लीद से बने सात उपलों के धूम से धूमायित किया जाता है। ये उपले दक्षिण अग्नि में जलाये जाते हैं। एक वर्गाकार गड्ढा खोदा जाता है, जिसमें लकड़ियां जलायी जाती हैं और उसमें उखा एवं ईंटें पकने के लिए डाल दी जाती हैं। पुरोहित दिन में उन चारों ईंटों एवं उखा को निकालता है और उन पर बकरी का दूध छिड़कता है। इसके उपरान्त अन्य ईंटें बनायी जाती हैं जो यजमान के पांव के बराबर होती हैं और जिन्हें इतना पकाया जाता है कि वे लाल हो उठती हैं। फाल्गुन की अमावस्या को इस कृत्य के लिए दीक्षा ली जाती है। दीक्षणीय इष्टि तथा अन्य साधारण कृत्य सम्पादित किये जाते हैं। यजमान या अध्वर्यु उखा को आहवनीय अग्नि पर रखता है और उस पर १३ समिधाएँ सजाता है। यजमान २१ कुण्डलों या मणियों वाला (नाभि तक पहुँचने वाला) सोने का आभूषण धारण करता है। इसके उपरान्त आहवनीय से उखा उठाकर उसके पूर्व में एक शिक्य पर रख दी जाती है जिसमें अग्नि डाल दी जाती है। उखा में रखी हुई यह अग्नि साल भर या कुछ कम अवधि (आप० १६।९।१ के अनुसार १२, ६ या ३ दिनों) तक रखी रहती है। एक दिन के अन्तर पर यजमान उस अग्नि का सम्मान वात्सप्र मन्त्रों (वाजसनेयी संहिता १२॥१८ २८. ऋ० १०॥४५॥१-११) से करता है और विष्णुक्रम करता है। वह राख हटाकर नयी समिधाएं उखा में रखता रहता है। इसके उपरान्त वेदिका-निर्माण होता है। वेदिका के पाँच स्तर होते हैं, जिनमें प्रथम, तृतीय एवं पञ्चम का ढंग द्वितीय एवं चतुर्थ से भिन्न होता है। वेदिका का स्वरूप द्रोण (दोने) के समान या रथ-चक्र, श्येन (बाज पक्षी), कंक, सुपर्ण (गरुड़) के समान होता है (तै० सं० ५।४।११, कात्या० १६१५।९)। कई आकार की ईंटें व्यवहार में लायी जाती हैं, यथा त्रिकोणाकार, आयताकार, वर्गाकार या त्रिकोण+आयताकार। उन्हें विचित्र ढंग से सजाया जाता है। वेदिका की ईंटों की सजावट में ज्यामिति एवं राजगीरी का ज्ञान आवश्यक है। मन्त्रों के साथ ईंटें रखी जाती हैं। ईंटों के कई नाम होते हैं। यजुष्मती नामक ईंटें पक्षी के आकार के काम में आती हैं। कुछ ईंटों के नाम ऋषियों के नाम पर होते हैं, यथा वालखिल्य। लगता है, ये ईंटें सर्वप्रथम ऋषियों द्वारा काम में लायी जाती थीं। जैमिनि (५।३।१७-२०) ने चित्रिणी एवं लोकम्पण नामक ईंटों के स्थानों का वर्णन किया है। अन्तिम दीक्षा के दिन वेदिका के स्थल की नाप-जोख की जाती है। यजमान की लम्बाई से दूनी रस्सी से नाप आदि लिया जाता है। यजमान की लम्बाई का पाँचवाँ भाग अरनि कहलाता है और दसर्वां भाग पद। प्रत्येक पद बारह अंगुलों का माना जाता है और तीन पद का एक प्रक्रम होता है (कात्या० १६।८।२१)। वेदिका-स्थल को विशिष्ट ढंग से जोता जाता है (आप० १६।१९।११-१३, कात्या० १७॥३॥६-७, सत्याषाढ ९।५।२१)। प्रथम Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614