________________
५७२
धर्मशास्त्र का इतिहास
(जैमिनि ६।४५/५० एवं ५१-५९, सत्याषाढ १६।१।२१) । जैमिनि (६।२।१ ) की व्याख्या में शबर ने लिखा है कि जो लोग एक साथ मिलकर सत्र सम्पादित करते हैं उनकी संख्या कम-से-कम १७ तथा अधिक-से-अधिक २४ होती है और सभी को समान आध्यात्मिक फल प्राप्त होता है (जैमिनि ६।२।१-२ ) । इसी से सत्रों में न तो वरण (पुरोहितों का चुनाव) होता है और न दान-दक्षिणा का प्रश्न उठता है (जैमिनि १०।२।३४-३८) । सनीहारों ( दक्षिणा एकत्र करने वालों) को दान एकत्र करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । यज्ञपात्रों का निर्माण समान प्रयोग के लिए होता है, सबके पात्र अलग-अलग होते हैं। यदि कोई सत्र सम्पादन के बीच ही मर जाय तो उसको उसके यज्ञपात्रों के साथ ही जला दिया जाता है (जैमिनि ६।६।३३-३५ ) । सत्रों में प्रतिनिधियों की भी व्यवस्था होती है। दिवंगत व्यक्ति के स्थान पर अन्य व्यक्ति भी सत्र कर सकते हैं, किन्तु फल प्राप्ति दिवंगत को ही होती है। वे ही लोग सत्र कर सकते हैं। जिन्होंने तीनों वैदिक अग्नियाँ प्रज्वलित कर रखी हों, केवल सारस्वत सत्र में ही कुछ छूट इस विषय में दी गयी है। जैमिनि ( ६०६ । १ - ११ ) के मत से एक ही प्रकार की शाखाविवि के अनुसार चलने वाले लोग साथ-साथ सत्र कर सकते हैं, अन्यथा प्रयाजों एवं आनी वचनों (छन्दों या पदों) के विषय में कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। बहुधा एक ही गोत्र वाले एक साथ सत्र कर सकते हैं। यदि सत्र करने की प्रतिज्ञा लेकर अथवा आरम्भ कर लेने के उपरान्त कोई व्यक्ति सत्र करना छोड़ देता है तो उसे प्रायश्चित्त रूप में विश्वजित् कृत्य ( जैमिनि ६।४।३२ एवं ६।५।२५-२७) करना पड़ता है। यद्यपि सत्र में सभी यजमान होते हैं, किन्तु उनमें किसी एक को गृहपति बन जाना पड़ता है। दीक्षा लेते समय एक विचित्र विधि का पालन करना पड़ता है ( कात्यायन १२।२।१५, सत्याषाढ १६।१।३६, आपस्तम्ब २१/२/१६२१।३।१); अध्वर्यु सर्वप्रथम गृहपति तथा ब्रह्मा होता एवं उद्गाता को दीक्षा देता है; प्रतिप्रस्थाता अध्वर्यु, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसी एवं प्रस्तोता को दीक्षित करता है; नेष्टा प्रतिप्रस्थाता को तथा अच्छावाक आग्नीध एवं प्रतिहर्ता को दीक्षित करता है; उन्नता नेप्टा, ग्रावस्तु एवं सुब्रह्मण्य को तथा इसी प्रकार प्रतिप्रस्थाता या कोई अन्य ब्राह्मण (जो स्वयं दीक्षित हो चुका हो) या वेद का कोई छात्र या स्नातक उन्नेता को दीक्षित करता है। उपर्युक्त लोगों की पत्नियां
साथ ही दीक्षित होती हैं ( कात्या० १२/२/१३ ) । प्रतिदिन सत्र में सम्मिलित लोग सोम की मौन रूप से रक्षा करते हैं तथा अन्य लोग वेद-पाठ करते हैं या समिया लाते हैं (शतपथ ब्राह्मण ४ ६ ९१७, कात्या० १२।४।१ एवं ३ ) । दसवें दिन ब्रह्मोद्य होता है या प्रजापति को मधुमक्खियाँ, ततैया ( भिड़) एवं चोर उत्पन्न करने के कारण गालियाँ दी जाती हैं ( आप० २१।१२।१-३, सत्या० १६/४१३३-३५, कात्या० १२।४।२१-२३) ।
सत्र करते समय यजमान को कुछ नियम पालन करने पड़ते हैं (आश्व० १२१८, द्राह्यायण श्रीतसूत्र ७१३ - ९ ) । दीक्षणीया इष्टि करने के उपरान्त पितरों के लिए किये जाने वाले कृत्य ( पिण्डपितृयज्ञ आदि ) तथा देवताओं वाले कृत्य ( यथा अग्निहोत्र ) सत्र की समाप्ति तक बन्द रखे जाते हैं। सत्र करने वालों को सत्र समाप्ति तक सम्भोग करना मना रहता है । वे दौड़कर नहीं चल सकते । वे न तो दाँत दिखाकर हँस सकते और न नारियों से बातें कर सकते हैं। वे अनार्यों से बोल नहीं सकते। जल में डुबकी लेना, असत्य भाषण करना, क्रोध करना, पेड़ पर चढ़ना, नाव या रथ पर चढ़ना मना कर दिया जाता है। सत्री (सत्र करने वाले) को गाना, नाचना एवं वाद्य यन्त्र वजाना मना है। दीक्षा के समय वे केवल दूध का पान कर सकते हैं। सोमरस निकालने के दिन वे हवि के अवशेष भाग, कन्द-मूल-फल या व्रत वाले भोज्य पदार्थों का ही सेवन कर सकते हैं।
सत्र - कृत्य का अत्यन्त मनोहारी दिन महाव्रत वाला माना जाता है और यह महाव्रत समाप्ति के एक दिन पूर्व किया जाता इस दिन विचित्र-विचित्र कृत्य होते हैं। यह व्रत प्रजापति के लिए किया जाता है, क्योंकि प्रजापति को 'महान' कहा जाता है। 'महाव्रत' का तात्पर्य है 'अन्न' (ताण्ड्य ४११०-२, शतपथ० ४१६/४/२) । इस दिन अन्य के साथ-साथ महाव्रतीय सोम-पात्र से सोम की आहुति दी जाती है । प्रजापति के लिए पशु-बलि दी जाती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org