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पक्षात्ल का इतिहास दी आती हैं और साथ ही एक सौ गुंजा गर का एक स्वर्ण-खण्ड भी भेट किया जाता है (कात्या. २०१४-६, लाट्गा. ९।९।८)। अग्नि मूर्धन्वान् एवं पूषा के लिए दो इष्टियों की जाती हैं (आश्व० १०।६।२-५, कात्या० २०११।२५) । यजमान केश, नख कटाता है, दाँत स्वच्छ करता है, स्नान करके नवीन वस्त्र धारण करता है, निष्क (सोने का आभूषण) धारण करता है और मौन रहता है। इन कृत्यों के लिए देखिए तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।८।१) एवं आप० (२० ४१९-१४) । यजमान की चारों रानियाँ अलंकृत हो तथा निष्क धारण करके उसके पास आती हैं। महिषी राजकुमारियों के साथ, दूसरी रानी (वावाता, जिसे राजा सबसे अधिक चाहता है) क्षत्रियों की कन्याओं के साथ, तीसरी रानी (परिवृत्ती, त्यागी हुई) सूतों एवं ग्राम-मुखियों की लड़कियों के साप तथा चौथी रानी (पालागली, नीच जाति वाली) क्षत्रों (चॅवर डुलानेवालों) एवं संग्रहीताओं की कन्याओं के साथ आती हैं। यजमान अग्नि-स्थल में प्रवेश कर गार्हपत्याग्नि के पश्चिम उत्तराभिमुख बैठ जाता है।
अश्व के रंग एवं अन्य गुणों के विषय में बहुत-से नियम बनाये गये हैं (शतपथब्राह्मण १३।४।२।४, कात्या० २०१:२९-३५, लाट्या० ९।९।४) । अश्व श्वेत रंग का होना चाहिए और उस पर काले रंग के वृत्ताकार चिह्न हों तो अत्युत्तम है तथा उसे बहुत तेज चलने वाला होना चाहिए। यदि श्वेत रंग वाला अश्व न हो तो उसका अग्र भाग काला हो तथा पृष्ठ भाग श्वेत, या उसके केश गहरे नीले रंग के हों तो अच्छा है।
चारों प्रमुख पुरोहित अश्व पर पवित्र जल छिड़कत हैं। ये पुरोहित क्रम से चारों दिशाओं में खड़े रहते हैं और उनके साथ एक सौ राजकुमार, एक सौ उग्र (जो राजा नहीं होते), सूत, प्राम-मुखिया, क्षत्र एवं संग्रहीता होते हैं (आप० २०१४, सत्याषाढ १४।१।३१)। चार आँखों वाला एक कुत्ता (दो प्राकृतिक आँखों और दोनों आँखों के पास दो गड्ढे वाला) आयोगव जाति के एक व्यक्ति द्वारा या सिध्रक काष्ठ से बने मूसल से किसी विषयासक्त व्यक्ति द्वारा मारा जाता है। अश्व पानी में ले जाया जाता है जहाँ उसके पेट के नीचे कुत्ते का शव रस्सी से बांधकर तैराया जाता है (आप० २०१३॥६-१३, कात्या० २२।११३८, सत्या० १४॥१३०-३४)। इसके उपरान्त अश्व अग्नि के पास लाया जाता है और जब तक उसके शरीर से जल की बूदें टपकती रहती हैं तब तक अग्नि में आहुतियाँ डाली जाती हैं (कात्या० २०॥ २॥३-५)। अश्व.को मूंज की या दर्भ की १२ या १३ अरनि लम्बी मेखला पहनायी जाती है। मन्त्रों के साथ अश्व पर जल छिड़का जाता है। यजमान मन्त्रों के साथ अश्व के दाहिने कान में उसकी कतिपय उपाधियाँ या संज्ञाएँ कहता है (आप० २०५।१-९)। इसके उपरान्त अश्व स्वतन्त्र रूप से देश-विदेश में घूमने को छोड़ दिया जाता है। उसके साथ चार सौ रक्षक होते हैं (वाजसनेयी संहिता २२।१९, तैत्तिरीय संहिता ७।१।१२।१)। रक्षकों में एक सौ ऐसे राजकुमार रहते हैं जो राजा के साथ सम्मानपूर्वक बैठ सकते हैं। इन राजकुमारों के पास अस्त्र-शस्त्र होते हैं। अन्य रक्षकों के पास भी उनकी योग्यता के अनुसार आयुध होते हैं (तै० ब्रा ३१८१९,आप० २०५।१०-१४, कात्या० २२।२।११)। अश्व साल भर तक इस प्रकार अपने-आप चलता रहता है, किन्तु पीछे नहीं लौटने पाता। वह न तो जल में प्रवेश करने पाता और न घोड़ियों से मिलने पाता है (कात्या० २२।२।१२-१३)। अश्व के रक्षक लोग बाणों से भोजन मांगकर खाते हैं और रात्रि में रथकारों के घरों में सोते हैं (आप० २०।५।१५-१८, २०।२।१५-१६)। 'ब तक अश्व इस प्रकार बाहर रहता है, यजमान (यहाँ पर राजा) प्रति दिन प्रातः, मध्याह्न एवं सायं सविता के लिए तीन इष्टियाँ करता रहता है। सविता को प्रातः, मध्याह्न एवं सायं क्रम से सत्यप्रसव, प्रसविता एवं आसविता कहकर पूजित किया जाता है (आश्व० १०।६।८, लाट्या० ९।९।१०, कात्या०२०।२।६)। जब प्रयाज नामक आहुतियाँ दी जाती हैं, पुरोहितों के अतिरिक्त कोई अन्य ब्राह्मण वीणा पर राजा के विषय में स्वरचित तीन प्रशस्तियुक्त गाथाएँ गाता है (आप० २०१६।५, कात्या० २०२।७)। सविता की इष्टि के सम्पादन के उपरान्त ये प्रशस्तियाँ प्रति दिन तीन बार गायी जाती हैं (शत० ब्रा० १३।४।२।८-१४, तै० ब्रा० ३।९।१४) । इसी प्रकार एक वीणावादक क्षत्रिय यजमान (राजा) के संग्रामों एवं विजयों
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