Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 584
________________ सोमयन ( राजसूय) ५६१ आये हैं. वे सत्र के द्योतक हैं, किन्तु जहाँ 'यजेत' या 'याजयेत' शब्द आते हैं, उन्हें अहीन समझा जाना चाहिए। अहीन में केवल अन्तिम दिन अतिरात्र होता है, किन्तु सत्र में आरम्भिक एवं अन्तिम दोनों दिन अतिरात्र होते है ( कात्या० १२।१।६ ) । राजसूय यह यज्ञ पूर्णतया सोमयज्ञ नहीं है, प्रत्युत एक ऐसा जटिल यश है, जिसमें बहुत-सी पृथक्-पृथक् इष्टियाँ सम्पादित होती हैं और जो एक लम्बी अवधि तक चलता रहता है (दो वर्षों से अधिक अवधि तक ) । किन्तु हम यहाँ केवल मुख्य-मुख्य बातों का ही उल्लेख करेंगे। यह यश केवल क्षत्रिय द्वारा ही सम्पादित होता है। कुछ लोगों के मत से यह उसी व्यक्ति द्वारा सम्पादित होता है, जिसने वाजपेय यज्ञ न किया हो ( कात्या० १५/१/२), किन्तु कुछ अन्य लोगों के मत से यह वाजपेय यज्ञ के उपरान्त ही किया जाता है ( आश्वलायन ९/९/१९ ) । शतपथ ब्राह्मण (९।३।४१८) में आया है कि राजसूय करने से व्यक्ति राजा होता है, वाजपेय करने से सम्राट् होता है तथा राजा की स्थिति के उपरान्त सम्राट् की स्थिति उत्पन्न होती है। फाल्गुन मास, शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन यजमान पवित्र नामक सोमयज्ञ के लिए दीक्षा लेता है, जो अग्निष्टोम की विधि के समान ही है (लाट्या ० ९/१/२, आश्व० ९ ३ २, कात्या० १५/१/६) । दीक्षा के दिनों की संख्या के विषय में मतभेद है ( लाट्या० ९।११८, कात्या० १५।१।४ ) । राजसूय के प्रमुख कृत्यों में अभिषेचनीय नामक कृत्य 'पवित्र' यज्ञ सम्पादन के एक वर्ष उपरान्त किया जाता है ( लाया० ९ २ १२ २४ ) | पवित्र यश के उपरान्त पाँच दिनों तक एक-एक करके पांच आहुतियाँ दी जाती हैं। फाल्गुन की पूर्णिमा को अनुमति के लिए एक इष्टि की जाती है (एक पुरोडाश दिया जाता है) । देखिए कात्या० ( १५।११ ) एवं आप० (१८|८|१० ) । इसके उपरान्त कई कृत्य किये जाते हैं । फाल्गुन की पूर्णिमा को चातुर्मास्यों (अर्थात् सर्वप्रथम वैश्वदेव और तब चार मास उपरान्त वरुणप्रघास आदि) का आरम्भ होता है। यह एक वर्ष तक चलता रहता है। चातुर्मास्यों वाले पर्वों के बीच पूर्णिमा एवं अमावस्था के मासिक यज्ञ होते रहते हैं। फाल्गुन शुक्ल पक्ष के प्रथम दिन शुनासीरीय पर्व के साथ चातुर्मास्यों की परिसमाप्ति होती है। इसके उपरान्त कई कृत्यों का आरम्भ होता है, यथा पञ्चजातीय ( आप० १८/९ | १०-११, कात्या० १५११/२०-२१), अपामार्ग - होम ( आप० १८।९।१५-२०, कात्या० १५ ॥ २।१)। इसके उपरान्त बारह आहुतियाँ दी जाती हैं जिन्हें 'रनिनां हवींषि' कहा जाता है और जो एक-एक करके बारह दिनों तक चलती रहती हैं। ये आहुतियाँ 'रत्नों' के घरों में अर्थात् यजमान, उसकी रानियों एवं राजकीय कर्मचारियों के घरों में दी जाती हैं ( कात्या० १५ । ३ एवं आप० १८ । १० ) । कात्यायन के अनुसार ये बारह रत्न हैं-यजमान, सेनापति, पुरोहित, महारानी, सूत ( सारथि या भाट ? ), ग्रामणी ( गाँव का मुखिया), (कंचुकी), ५. राजा राजसूयेन यजेत । लाट्यायनश्रौत० (९११।१) । सत्याषाढ (१३३३ ) ने 'यजेत' के पूर्व 'स्वर्गकामो' जोड़ दिया है (और देखिए आप० १८३८/१, कास्या० १५।१।१) । शबर (जैमिनि ११।२।१२ ) ने 'राजसूयेन स्वाराज्यकामो यजेत उद्धरण दिया है। 'तथो एवंतद्यजमानो यद्राजसूयेन यजते सर्वेषां राज्यानां श्रेष्ठ्यं स्वाराज्यमाधिपत्यं पर्येति' (शांलयन १५।१३।१) । शबर ने 'राजसूर्य' शब्द की व्युत्पत्ति यों की है--'राजा तत्र सूयते तस्माद् राजसूयः । राम्रो वा यशो राजसूयः' (जैमिनि ४|४|१ की टीका में) । सोम को 'राजा' कहा जाता है । धर्म ०-७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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