Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 585
________________ ५६२ धर्मशास्त्र का इतिहास संग्रहीता ( कोषपाल या सारथि ? ), अक्षावाप ( द्यूत का अधीक्षक), गोविकर्ता (शिकारी), दूत या पालागल एवं परिवृक्ती ( निरादृत रानी ) । इसी प्रकार क्रम से देवता ये हैं--इन्द्र, अग्नि अनीकवान्, बृहस्पति, अदिति, वरुण, मरुत, सविता, अश्विनौ, रुद्र ( अक्षावाप एवं गोविकर्ता के लिए), अग्नि, निर्ऋति ( इसके लिए नखों से निकाले हुए काले चावल का चरु दिया जाता है) । दक्षिणा की मात्रा मी पृथक्-पृथक् होती है। इसके उपरान्त कई अन्य आहुतियाँ दी जाती हैं । तदनन्तर अभिषेचनीय कृत्य होता है, जो राजसूय यज्ञ का केन्द्रिय कृत्य है। यह पाँच दिनों तक चलता रहता है (एक दिन दीक्षा, तीन दिन उपसद् तथा एक दिन सोमरस निकालने के लिए, जिसे सुत्य दिन कहा जाता है ) । अभिषेचनीय (अभिषिचन कृत्य ) चैत्र मास के प्रथम दिन किया जाता है। यह कृत्य यज्ञस्थल के दक्षिणी भाग में तथा दशपेय कृत्य उत्तरी भाग में किया जाता है। दोनों कृत्यों का होता भृगु-गोत्रज रखा जाता है (ताण्ड्य ब्राह्मण १८/९/२, कात्या० १५।४।१ एवं शांखा० १५ । १३।२ ) । दोनों कृत्यों के लिए सोम लाया जाता है । सविता, अग्नि गृहपति, सोम वनस्पति, बृहस्पति, इन्द्र, रुद्र, मित्र एवं वरुण नामक आठ देवों को देवसू हवि की आठ आहुतियाँ दी जाती हैं जो चरु रूप में होती हैं। चरु की इन आहुतियों के उपरान्त पुरोहित १७ पात्रों (उदुम्बर काष्ठ के पात्रों) में १७ प्रकार का जल लाता है, यथा--सरस्वती नदी का जल, बहती नदी का जल, किसी व्यक्ति या पशु के प्रवेश से उत्पन्न हलचल युक्त जल, बहती नदी के उलटे बहाव का जल, समुद्र- जल, समुद्र की लहरों का जल, भ्रमर से उत्पन्न जल, खुले आकाश के गम्भीर एवं सुस्थिर जलाशय का जल, पृथिवी पर गिरने से पूर्व सूर्यप्रकाश में गिरता हुआ वर्षा- जल, झील का जल, कूपजल, तुषार-जल आदि ( कात्या० १५१४१२१-४२, आप० १८३१३०९-१८ ) । ये सभी प्रकार के जल उदुम्बर के पात्रों में मैत्रावरुण नामक पुरोहित के आसन के पास रख दिये जाते हैं। इसके उपरान्त अनेक कृत्य होते हैं, जिनका वर्णन यहाँ स्थानाभाव से नहीं किया जा सकता। विभिन्न प्रकार के जलों से यजमान का अभिषिंचन किया जाता है। होता शुनःशेप की कथा कहता है ( ऐतरेय ब्राह्मण ३३ ) । यह कथा द्यूतक्रीड़ा के उपरान्त कही जाती है। अभिषेचनीय कृत्य के उपरान्त दो प्रकार के होम किये जाते हैं, जिन्हें 'नाम-व्यतिषजनोय' कहा जाता है। इन होमों में पहले ज्येष्ठ पुत्र को अपने पिता का पिता कहा जाता है और तब वास्तविक सम्बन्ध घोषित किया जाता है ( आप० १८। १६।१४-१५, कात्या० १५ । ६ । ११) । इसके उपरान्त ta की लूट का प्रतीक उपस्थित किया जाता है। यजमान ( यहाँ राजा ) अपने सगे-सम्बन्धियों की सौ या अधिक गायों को लूट लेने का भाव प्रकट करता है। वह यह क्रिया चार घोड़ों वाले रथ पर चढ़कर करता है। गायों को वह पुन: लौटा देता है। इसके उपरान्त रथविमोचनीय नामक चार आहुतियां दी जाती हैं। यजमान दान देने का कृत्य करता है । यजमान (राजा) द्यूत (जुआ) खेलता है, जिसमें उसे जिता दिया जाता है। अभिषेचनीय कृत्य के दस दिन उपरान्त दशपेय कृत्य किया जाता है । दशपेय कृत्य में दस चमसों एवं दस ब्राह्मणों का संयोग होता है। ये दस ब्राह्मण ऋत्विक् ही होते हैं और दस चमसों में क्रम से एक-एक चमस सोमरस पान करते हैं । ये ब्राह्मण दस चमसों के अतिरिक्त ९० नमसों (अनुप्रसर्पकों) का भी पान करते हैं, जो क्रम से उनके दस-दस पूर्व पुरुषों (पूर्वजों) के द्योतक होते हैं । राजसूय यज्ञ के कई भागों एवं अंगों के कृत्यों में भी दान-दक्षिणा देने का विधान है, किन्तु अभिषेचनीय एवं दशपेय कृत्यों में विशिष्ट दक्षिणाएँ दी जाती हैं । अभिषेचनीय कृत्य में ३२,००० गायें चार प्रमुख पुरोहितों को, १६,००० प्रथम सहायकों को, ८००० आगे के चार सहायकों को तथा ४००० अन्तिम चार सहायकों को दी जाती हैं। इस प्रकार होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा एवं उद्गाता में प्रत्येक को ३२,००० गायें, मैत्रावरुण (होता के प्रथम सहायक), प्रतिप्रस्थाता (अध्वर्यु के प्रथम सहायक), ब्राह्मणाच्छंसी (ब्रह्मा के प्रथम सहायक ) एवं प्रस्तोता ( उद् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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