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धर्मशास्त्र का इतिहास शस्त्रों की संख्या १७ है। प्रजापति के लिए १७ पशुओं की बलि होती है, दक्षिणा में १७ वस्तुएँ दी जाती हैं, यूप (जिसमें बांधकर पशु की बलि होती है) १७ अरनियों का लम्बा होता है, यूप में जो परिधान बांधा जाता है वह भी १७ टुकड़ों वाला होता है, यह १७ दिनों तक (१३ दिनों तक दीक्षा, ३ दिनों तक उपसद् तथा एक दिन सोम से रस निकालना) चलता रहता है (देखिए आप० १८३१५, ताण्ड्य० १८७।५, आप० १८०१११२, आश्व० ९।९।२-३
आदि)। इसमें प्रजापति के लिए १७ प्यालियों में सुरा भरी जाती है और इसी प्रकार १७ प्यालियों में सोमरस मी रखा जाता है। इस यज्ञ में १७ रथ होते हैं जिनमें घोड़े जोतकर दौड़ की जाती है। वेदी की उत्तरी श्रोणी पर १७ ढोलकें रखी जाती हैं, जो साथ ही बजायी जाती हैं (आप० १८१४।४ एव ७, कात्यायन १४।३।१४)। यह जटिल कृत्य उसके द्वारा किया जाता था जो आधिपत्य (आश्व० ९।९।१) या समृद्धि (आप० १८।१।१) या स्वाराग्य (इन्द्र की स्थिति या निविरोध राज्य) का अभिलाषी होता था। यह शरद् ऋतु में सम्पादित होता था। इसका सम्पादन केवल ब्राह्मण या क्षत्रिय कर सकता था, वैश्य नहीं (तै० ब्रा० १॥३२. लाट्यायन ८१११११, कात्या० १४॥ १११ एवं आप० १८०१०१)। इस यज्ञ के सभी पुरोहित, यजमान एवं यजमान की पत्नी सोने की सिकड़ियाँ धारण करते हैं। पुरोहितों की सिकड़ियां उनकी दक्षिणा हो जाती है। इसमें अग्नि, इन्द्र एवं इन्द्राग्नी के लिए जो पशु दिये जाते हैं, उनके अतिरिक्त मरुतों के लिए एक ठाँठ (बन्ध्या) गाय, सरस्वती के लिए एक भेड़ तथा प्रजापति के लिए शृंगविहीन, एक रंग वाली या काली, तरुण एवं पुष्ट १७ बकरियां दी जाती हैं (आप० १८।२।१२-१३, कात्या० १४॥२॥११-१३)। प्रतिप्रस्थाता हविर्धान के दक्षिणी धुरे के पश्चिम पाश्र्व में एक उच्च स्थल (खर) का निर्माण करता है, जिस पर विभिन्न जड़ी-बूटियों से निर्मित आसव (परित) की १७ प्यालियां रखी जाती हैं। सोमपात्र (प्यालियाँ) गाड़ी के धुरे के पूर्व तथा आसवपात्र पश्चिम एक दूसरे से पृथक्-पृथक् रख दिये जाते हैं। कात्यायन (१४॥१३१७ एवं २६) के मत से नेष्टा नामक पुरोहित ही खर एवं आसवपात्रों का निर्माण करता है। आसपात्रों के मध्य में एक सोने के पात्र में मधु रखा जाता है। जब मध्याह्नकालीन सोमरस निकाला जाता है उस समय रथों की दौड़ करायी जाती है.(आप० १८०३१३ एवं १२-१४)। तैत्तिरीय ब्राह्मण (१०३।२) ने उस दौड़ की ओर संकेत किया है जिसमें बृहस्पति की विजय हुई थी। इस ग्रन्थ ने उस दौड़ को वाजपेय यज्ञ से सम्बन्धित माना है। आहवनीय अग्नि के पूर्व में १७ रथ इस प्रकार रखे जाते हैं कि उनके जुए उत्तर या पूर्व में रहते हैं। यजमान के रप में तीन घोड़े मन्त्रों के साथ जोते जाते हैं और चौथा घोड़ा तीसरे घोड़े के साथ बिना जोते हुए दौड़ता है। इन घोड़ों को बृहस्पति के लिए निर्मित चरुसुंघाया जाता है। अन्य १६ रथों में वेदी के बाहर चार चार घोड़े बिना मन्त्रों के जोत दिये जाते हैं (कात्या० १४।३।११)। चात्वाल एवं उत्कर के बीच एक क्षत्रिय (आपस्तम्ब के मत से राजपुत्र) एक तीर छोड़ता है, और जहाँ वह तीर गिरता है, वहां से वह एक दूसरा तीर छोड़ता है। यह क्रिया १७ बार की जाती है। जहाँ सत्रहवां तीर गिरता है वहाँ उदुम्बर का एक स्तम्भ गाड़ दिया जाता है और उसी स्थल तक रथ-दौड़ का कृत्य किया जाता है (आप. १८०३।१२ एवं कात्या० १४।३।१-११ एवं १६-१७)। जब रथों की रोड़ आरम्भ होती है, ब्रह्मा १७ अरों वाला एक पहिया रथ की धुरी में लगाकर उस पर चढ़ता है और कहता है-"सविता देवता की उत्तेजना पर मैं वाज (शक्ति, भोजन या दौड़) जीत लू" (आप० १८१४१८, कात्या० १४।३।१३, वाजसनेयो संहिता ९।१०)। जब पहिया वायें से दाहिने तीन बार घुमाया जाता है तो ब्रह्मा 'वाजि-साम' (आप० १८।४।११, आश्व० ९।९१८, लाट्यायन ५।१२।१४) का पाठ करता है।' यजमान उस रथ पर बैठता है जिस पर मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है।
२. ब्रह्मा इस मन्त्र का गान करता है-'आविर्या आमा वाजिनो अग्मन्वेवस्य सवितुः सवे। स्वर्गा अर्वन्तो .
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