Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 576
________________ अग्निष्टोम यज्ञ गाता, यजमान, मैत्रावरुण, ब्राह्मणाच्छंसी, पोता, नेष्टा एवं आग्नीघ्र के लिए मरे जाते हैं (उन्नेता तथा अच्छावाक के लिए सोमरस नहीं भरा जाता)। इसके उपरान्त शुक्रामन्थि-प्रचार कृत्य होता है। शुकामम्भि-प्रचार–अध्वर्यु शुक्र नामक सोमपात्र ग्रहण करता है। इसी प्रकार प्रतिप्रस्थाता मन्थी पात्र तथा उत्तरवेदी पर रखे गये चमसों (चम्मचों) को चमसाध्वर्यु लोग ग्रहण करते हैं। चमसाध्वर्यु लोग यजमान द्वारा चुने गये ऋत्विक नहीं हैं, वे पुरोहितों (ऋत्विकों) द्वारा चुने गये सहायक पुरोहित होते हैं (देखिए जैमिनि ३।७।२७)। जैमिनि (३७।२६।२७) के मत से चमसाध्वर्यु कुल मिलाकर दस होते हैं। कोन पुरोहित सबसे पहले सोमरस पान करता है, अध्वर्यु या ब्रह्मा? इस विषय में मतभेद है। विभिन्न पुरोहितों के पीने की विधि बडी जटिक है और स्थानाभाव से इसका वर्णन यहाँ नहीं किया जा रहा है। पह-अग्निष्टोम कृत्य में विभिन्न ऋतु-पात्रों में ही सोमरस भरा जाता है। इन पात्रों में ब्रोनकलक्ष से रस मरा जाता है। अध्वर्यु और उसका सहायक प्रतिप्रस्थाता १२ मासों (मषु, माषव आदि, देखिए तैत्तिरीय संहिता १।४।१४ या वाजसनेयीसंहिता ७.३०) या मलमास को लेकर १३ मासों (जब कि १३वा मास पड़ जाय) को भी सोमरस देता है। मलमास को संसर्प (ले० सं० १।४।१४१) एवं बहसस्पति (वाज० सं० ७.३०) कहा जाता है। दो-दो मासों की छः ऋतुओं को भी सोमरस प्रदान किया जाता है। दो मासों में प्रथम को अच्चर्य तथा दूसरे को प्रतिप्रस्वाता रस देता है। क्षत्रिय एवं सोमरस-ऐतरेय ब्राह्मण (३५।२-४) के मत से क्षत्रिय यजमान सोमरस का पान नहीं कर सकता। • इसके मत से यदि क्षत्रिय चाहे तो वह बरगद की कोमल टहनियों के रस, बरगद के या अन्य पवित्र पेड़ों या उदुम्बर (गूलर) के फलों को दही में मिश्रित कर खा सकता है। किन्तु संस्कृत वाङमय में कमी-कमी राजानों को 'सोमपा' कहा गया है। कुछ सूत्रों (सत्याषाढ ८७, पृ० ८८२, आप० १२।२४१५) ने भी यही बात कही है। जैमिनि (३१५॥ ४७-५१) ने लिखा है कि इन वस्तुओं का तरल रूप जब प्याले में रख दिया जाता है तो उसे फारसमस कहा जाता है और यह आहवनीय के अंगारों पर डाल दिया जाता है, यह पिया नहीं जाता. (देखिए जैमिनि ३१६३६)। शस्त्र एवं स्तोत्र-अग्निष्टोम कृत्य में शस्त्रों के वाचन के छ: या सातप्रकार हैं, यथा (१) मौन रूप से जप, (२) आहाव एवं प्रतिगर, (३) तूष्णीशंस, (४) निविद् या पुरोरुक्; (५) सूक्त, (६) उक्थंवाचि' शब्दों का जप (आश्व० ५।१०।२२-२४) एवं (७) याज्या (आश्व० ५।१०।२१)। आश्वलायन श्रौतसूत्र के अतिरिक्त अन्य शस्त्रों में 'तूष्णींशंस' का उल्लेख नहीं हुआ है। अग्निष्टोम में १२ स्तोत्र एवं १२ शस्त्र पाये जाते हैं। 'शस्त्र' एवं 'स्तोत्र' शब्दों का अर्थ है 'स्तुति या प्रशंसा', किन्तु 'स्तोत्र' वह स्तुति है जो स्वर के साथ गायी जाती है और शस्त्र वह स्तुति है जिसका वाचन मात्र होता है (शबर, जैमिनि ७।२।१७) । शस्त्र का वाचन स्तोत्र के उपरान्त होता है । अग्निष्टोम में आज्य-शस्त्र प्रथम शस्त्र है और माग्निमारुत अन्तिम । प्रातःकाल के सवन (सोम को कुचलकर रस निकालने की क्रिया) में पांच स्तोत्र गाये जाते हैं, यथाबहिष्पवमान तथा अन्य चार आज्यस्तोत्र; मध्याह्नकालीन सवन में अन्य पांच, यथा माध्यन्दिन पवमान तथा अन्य ८. जैसा कि पहले (अध्याय २९, टिप्पणी ३ में) लिखा जा चुका है, प्रमुख पुरोहित चार है। होता, अध्वर्य, ब्रह्मा एवं उद्गाता, इन चारों के तीन-तीन सहायक पुरोहित होते हैं। (१) होता के सहायक हैं मैत्रावरुण, अच्छावाक एवं प्रावस्तुत्, (२) अध्वर्यु के प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा एवं उन्नेता, (३) ब्रह्मा के गाह्मणाच्छंसी, आग्नीघ्र एवं पोता तथा (४) उद्गाता के प्रस्तोता, प्रतिहर्ता एवं सब्रह्मय (आश्व० मौतसूत्र ४।१६ एवं आप० श्री० १०॥१॥९)। धर्म०७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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