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धर्मशास्त्र का इतिहास
उठलों को सम्मरणी नामक पात्र में एकत्र कर आघवनीय नामक पात्र में रखता है। आधवनीय पात्र में पहले से जल रहता है। सोम के डण्ठल उसमें स्वच्छ किये जाते हैं और फिर निचोड़कर और बाहर निकालकर अधिषवण-वर्म पर रख दिये जाते हैं। इसके उपरान्त कई कृत्य किये जाते हैं और पात्र-पर-पात्र भरे जाते हैं। प्रथम पात्र को अन्तर्याम कहा जाता है । द्रोणकलश में रखे सोम को शुक्र कहा जाता है ( कात्या० ९।५।१५) । उपांशु प्याला सूर्योदय के पूर्व दिया जाता है किन्तु अन्तर्याम प्याला अध्वर्यु द्वारा सूर्योदय होते समय दिया जाता है ( आप० १२/१३ ॥ १२) । सोमरस के मरे पात्र या प्याले ये हैं--ऐन्द्रवायव्य, मैत्रावरुण, शुक्र, मन्थी, आग्रयण, उवध्य, ध्रुव । ये पात्र शर नामक उच्च स्थल पर रखे जाते हैं। इन पात्रों में सोमरस धारा रूप में ढाला जाता है, अतः इन्हें धाराग्रह कहा जाता है। इसके उपरान्त बहिष्पवमान स्तोत्र का पाठ किया जाता है, जो कई कृत्यों के साथ सम्पादित होता है। जहाँ यह स्तोत्र पढ़ा जाता है उसे आस्ताव कहा जाता हैं ( आश्व० ५।३।१६ ) । बहिष्पवमान स्तोत्र एक दिन से अधिक समय तक चलता रहता है। यजमान एवं चार पुरोहित (किन्तु अध्वर्यु नहीं) गायक का कार्य करते हैं, अर्थात् स्तोत्र का पाठ करते हैं (उपगाता, आप० १२।१७।११-१२ ) । सोमरस जब पहली बार निकाला जाता है तो प्रथम स्तोत्र कहा जाता है जिसे पवमान की संज्ञा मिली है (आप० १२।१७।८-८), किन्तु प्रातः कालीन सवनस्तोत्र को महिष्यवमान कहा जाता है। दूसरी एवं तीसरी बार रस निकालते समय क्रम से अध्यन्दिन पवमान एवं आर्भ या तृतीय पवमान कहा जाता है। अन्य स्तोत्रों को धुर्य कहा जाता है ( कात्या० ९।१४१५ की टीका ) ।
बहिष्पवमान स्तोत्र पढ़े जाते समय उन्नेता पुरोहित आघवनीय पात्र से सोमरस को पूतभूत् पात्र में डालता है । स्तोत्र समाप्त हो जाने पर अध्वर्यु आग्नीध्र पुरोहित से घिष्यों पर अग्नि प्रज्वलित करने को कहता है और वेदी पर कुश रखने तथा पुरोडाशों (रोटियों) को अलंकृत करने की आज्ञा देता है। इसी प्रकार अध्वर्युं प्रतिप्रस्थाता को सवनीय पशु लाने की आज्ञा देता है।
सवनीय पशु की आहुति - अग्निष्टोम में सोमरस निकालने के दिन अग्नि के लिए बकरे की बलि दी जाती है। उक्थ्य यज्ञ में इन्द्र एवं अग्नि के लिए एक दूसरे बकरे की बलि होती है। षोडशी यज्ञ में एक तीसरा पशु ( कात्या० ९८०४ के मत से मेष तथा आप० १२० १८ । १३ के मत से बकरा) काटा जाता है। अतिरात्र में सरस्वती के लिए बकरा काटा जाता है। इन चार पशुओं को स्तोमायन (कात्या० ८/७/९) एवं ऋतुपशु (आश्व० ५।३।४ ) कहा जाता है। इन पशुओं की बलि निरूढ- पशुबन्ध के समान ही की जाती है। सभी पुरोहित एवं यजमान सदों में प्रवेश करते हैं और दुम्बरी स्तम्भ के पूर्व एवं अपने कतिपय आसनों (विष्णचाओं) के पश्चिम भाग में बैठ जाते हैं। वे सभी अपने-अपने सोमरस-पात्रों एवं तीनों द्रोणियों अर्थात् आधवनीय, पूतभूत् एवं द्रोणकलश तथा घृत-पात्रों की ओर मन्त्रों के साथ दृष्टि फेरते हैं । यजमान मन्त्रों (आप० १२।१९।५ ) के साथ इन सभी पात्रों का सम्मान करता है। इसके उपरान्त प्रतिप्रस्थाता पाँचों सवनीय आहुतियां-यथा इन्द्र के लिए ग्यारह कपालों पर बनी रोटी, इन्द्र के दोनों हरि नामक घोड़ों के लिए धाना ( भुना हुआ जौ), पूषा के लिए करम्भ (दही से मिश्रित जौ का सत्तू ); सरस्वती के लिए दही एवं मित्र तथा वरुण के लिए पयस्या लाता है। अध्वर्यु इन आहुतियों को सजाकर एक पात्र में रखता है। इन आहुतियों को देने के उपरान्त सोमाहुतियाँ द्विदेवत्य ग्रहों को, अर्थात् इन्द्र एवं वायु, मित्र एवं वरुण तथा दोनों अश्विनी को (दो-दो देवों को साथ-साथ) दी जाती हैं। इसके उपरान्त चमसोमवन कृत्य होता है।
चमसोन्नयन - उत्तरवेदी के पश्चिम में उन्नेता नामक पुरोहित चमसाध्वर्युओं के लिए नौ प्यालियाँ सोमरस सरत है। सर्वप्रथम द्रोणकलश से सोमरस लिया जाता है (इसे उपस्तरण कहा जाता है), तब पूतभृत् से और अन्त में कलश से सोमरस लिया जाता है (इसे अभिधारण कहा जाता है)। ये नौ पात्र क्रम से होता, ब्रह्मा, उद्
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