Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 573
________________ ५५० धर्मशास्त्र का इतिहास एवं उत्तर वाली प्रतिप्रस्थाता के अधिकार में रहती है। ये गाड़ियाँ घास या बाँस के छिलकों से बनी चटाइयों से ढक दी जाती हैं। इसके उपरान्त छः खम्भों वाला एक मण्डप ( हविर्धान-मण्डप) बनाया जाता है। गाड़ी के घरों पर यजमान की पत्नी एवं प्रतिप्रस्थाता द्वारा कई कृत्य किये जाते हैं। इस विषय में अन्य संस्कार, यथा गाड़ियों को ढकना आदि, यहाँ नहीं दिये जा रहे हैं ( आप० ११1७-८, कात्या० ८१४) । हविर्घान के भीतर कोई कुछ खा-पी नहीं सकता । उपरव--अध्वर्यु दक्षिण दिशा में रखी हुई गाड़ी के सामने एक हाथ गहरे चार गड्ढे खोदता है जिन पर कुश बिछा दिये जाते हैं, उन पर दो अधिषवण- फलक (लकड़ी के तख्ते) विलाकर अधिषवण-धर्म ( बैल का लाल चर्म ) रख दिया जाता है। इस चर्म पर चार प्रस्तर खण्डों से सोम का रस निकाला जाता है। प्रस्तर-खण्डों से उत्पन्न घोष को चारों गड्ढे अधिक गुंजित कर देते हैं, इसी से इनको उपरव कहा जाता है ( कात्यायन ८|४|१८ की टीका) । ' उपरवों के पूर्व में या अधिषवण चर्म या उपस्तम्भन (रस्सी से बँधे दो सीधे बाँसों का ढाँचा, जिस पर गाड़ी का अग्रभाग या जुआ रख दिया जाता है) के पूर्व में चार कोनों वाला मिट्टी का एक ढूह बना दिया जाता है जिस पर सोम के पात्र रखे जाते हैं । इसके उपरान्त पुरोहितों के लिए पृथक्-पृथक् आसनों का निर्माण होता है। इन आसनों के निर्माण के साथ कई संस्कार किये जाते हैं जिन्हें स्थानाभाव से यहाँ छोड़ दिया जा रहा है। उपरवों के ऊपर कोमल कुश रख दिये जाते हैं और उनके ऊपर उदुम्बर, पलाश या काश्मयं नामक पेड़ के तख्तों से बने दो फलक रख दिये जाते हैं, इन्हें ही अधिषवण फलक कहा जाता है। अन्य कृत्यों का वर्णन यहाँ आवश्यक नहीं है। इसके उपरान्त अग्नि एवं सोम के लिए एक पशु की बलि दी जाती है। यह विधि निरूढ- पशुबन्ध विधि के समान ही है। परिस्तरण, यज्ञिय पात्रों का रखना, प्रोक्षण आदि कृत्य किये जाते हैं। प्रतिप्रस्थाता गजमान की पत्नी को उसके स्थान ( पत्नीशाला ) से लाता है। इसी प्रकार यजमान के अन्य सम्बन्धी बुलाये जाते हैं। यजमान अध्वर्यु का, पत्नी यजनान (पति) का, पुत्र एवं भाई लोग पत्नी का स्पर्श करते हैं। ये सभी नवीन परिधान पहने रहते हैं और अध्वर्यु आज्य की प्रचरणी अर्थात् वैसजन आहुतियाँ सोम को देता है ( कात्या० ८।७।१ आप० ११।१६।१५) । इसके उपरान्त अग्नि एवं सोम का प्रणयन ( आगे लाना) होता है । आवतीय पर अग्नि प्रज्वलित कर उत्तरवेदी पर लायी जाती है । भाँति-भाँति के पात्र महावेदी पर (पशुबलि के निमित्त) लाये जाते हैं । इसी प्रकार दूसरे दिन सोमरस निकालते समय काम में लाये जाने वाले पात्र यथास्थान पर सजा दिये जाते हैं। अग्नि आग्नीध्र के विष्ण्य के पास रख दी जाती है । सोम. के डण्ठल हविर्धान- मण्डप में लाये जाते हैं और दक्षिण की गाड़ी में काले हरिण के चर्म पर रख दिये जाते हैं। इसके उपरान्त यजमान अपनी मध्यम दीक्षा का त्याग करता है, अर्थात् वह अपनी मेखला ६. 'उप उपरिष्टाद् ग्राणां रवः शब्दो येषु ते ।' देखिए कात्यायन (८०४२८, ८/५/२४) एवं आपस्तम्ब ( १११११११, ११११२६) । ७. कात्यायन (८२५/२५ ) की टीका के अनुसार ये फलक वरण लकड़ी के होते हैं। इनका नाम अधिषवणफलक है, "अधि उपरि अभिषूयते सोमो ययोस्ते अधिषवणे फलके ।" कात्यायन (८/५/२६) की टीका के अनुसार अधिषवण चर्म बैल का धर्म होता है (ऋग्वेद १७।९४।९ - ' अंशु वुहन्तो अभ्यासते गवि') । आपस्तम्ब (१२/२/१४) के मत से प्रस्तर-खण्ड चार होते हैं, किन्तु कात्यायन (८/५/२८) ने पाँच संख्या दी है। आपस्तम्ब (१२/२/१५) ने पाँचवें प्रस्तर-खण्ड को उपर कहा है। यह पर्याप्त चौड़ा प्रस्तर होता है और इसी पर सोम के डण्ठल कूटे जाते हैं, इसके चारों ओर प्रात्रा नामक चार खण्ड रखे रहते हैं, जो एक-एक बित्ता लम्बे होते हैं और इस प्रकार बने होते हैं कि सोम के डण्ठल ठीक से कूटे जा सकें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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