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अग्निष्टोम यश
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ढीली कर देता है, मुट्ठियाँ खोल देता है, मौन तोड़ता है, उपवास का भोजन छोड़ता है और अपना दण्ड मैत्रावरुण नामक पुरोहित को दे देता है ( आप० ११।१८।६ ) | सोमरस निकाले जाने के दिन वह सोमरस पीता है और शेष यशिय भोजन खाता है। इसके उपरान्त वह अपने नाम से पुकारा जाता है और उसके घर में बना भोजन अन्य लोग भी खाते हैं ( कात्या० ८।७।२२ ) । तब अग्नि एवं सोम के लिए पशु बलि दी जाती है । जैमिनि (६।१।१२ ) के अनुसार बलि का पशु छाग ( बकरा ) होता है। निरूढ - पशुबन्ध एवं अग्नीषोमीय पशु की बलि में थोड़ा-सा अन्तर होता है । सोमरस निकालने के लिए जिस जल की आवश्यकता होती है उसे वसतीवरी कहा जाता है। इसे विधिपूर्वक किसी नदी से लाया जाता है और सुरक्षित रखा जाता है। रात भर यज्ञशाला में ही पुरोहित आदि निवास करते हैं।
पाँचवें दिन (अन्तिम दिन ) को 'सुत्या ( जिस दिन सोमरस निकाला जाता है) कहा जाता है। सूर्योदय होने के बहुत पहले ही सभी पुरोहित जगा दिये जाते हैं, जिससे वे सूर्योदय के पहले ही उपांशु प्रस्तर खण्ड से सोमरस निकाल डालें। इसके उपरान्त सवनीय (सोम रस निकाले जाने के दिन बलि दिये जाने वाले ) पशु की बलि की व्यवस्था की जाती है।
प्रातरनुवाक - - सूर्योदय के पूर्व जब कि पक्षी भी जागे नहीं होते, अध्वर्यु होता को प्रातरनुवाक ( प्रातःकाल की स्तुति ) कहने के लिए आज्ञा देता है। यह स्तुति अग्नि, उषा एवं अश्विनौ के लिए कही जाती है, क्योंकि ये देव प्रातः काल आ जाते हैं । इसी प्रकार अध्वर्यु ब्रह्मा से मौन धारण करने, प्रतिप्रस्थाता को सवनीय पुरोडाश के लिए निर्वाप ( सामग्रियां ) निकालने तथा सुब्रह्मण्य को सुब्रह्मण्या स्तोत्र पढ़ने के लिए आज्ञा देता है। इसी प्रकार अध्वर्यु होता से कहता है कि वह (अध्वर्यु) उसकी स्तुति को मन-ही-मन कहेगा। होता हविर्धान गाड़ियों के जुओं के बीच में बैठकर प्रातरनुवाक को तीन भागों में कहता है। इन तीनों भागों को ऋतु कहा जाता है, जिनमें प्रथम अग्नि के लिए, द्वितीय उषा के लिए एवं तृतीय अश्विनी के लिए होता है। प्रत्येक भाग में होता कम से कम एक-एक मन्त्र गायत्री, अनुष्टुप् बृहती, उष्णिक्, त्रिष्टुप् जगती एवं पंक्ति नामक सातों छन्दों में कहता है। आश्वलायन ने लगभग २५० मन्त्र उषा ऋतु में, ४०७ आश्विन ऋतु में कहने को लिखा है--इस प्रकार ऋग्वेद का लगपग पाँचवाँ भाग पढ़ डालना पड़ता है । यह प्रातरनुवाक मन्द्र गति से कहा जाता है (आश्व० ४।१३।६ ) ।
प्रातरनुवाक होते समय आग्नीध्र ( कात्या० ९।१।१५ के मत से ) या प्रतिप्रस्थाता ( आप० १२०४१४ के मत से ) निर्वाण (आहुतियों की सामग्रियाँ) निकालता है। ये सामग्रियां हैं- ग्यारह कपालों वाली एक रोटी (इन्द्र के लिए), इन्द्र के दो हरियों (पिंगल घोड़ों) के लिए धाना (भूने हुए जौ), पूषा के लिए करम्भ ( दही से मिला जौ का सत्तू), सरस्वती के लिए दही तथा मित्र एवं वरुण के लिए पयस्या । इसके उपरान्त बहुत-से कृत्य किये जाते हैं, जिनका वर्णन स्थानाभाव से नहीं किया जा सकता । समय-समय पर सोमरस भी निकाला जाता है और देवों को चढ़ाया जाता है। अन्य कृत्यों के उपरान्त महाभिषव कृत्य किया जाता है।
महाभिवद यह एक महान् कृत्य माना जाता है। इसका सम्बन्ध है सोमरस निकालने के प्रमुख कर्म से । सोमरस निकालने में दो प्रकार के जल का प्रयोग होता है। एक को वसतीवरी कहा जाता है, जो पूर्व रात्रि में ही लाया जाता है, और दूसरा है एकधना, जो उसी दिन लाया जाता है। प्रातःकाल सोम के डंठलों के अधिकतम भाग से रस निकाला जाता है तथा कुछ कम भाग से मध्याह्न काल में । अध्वर्यु उपर नामक पत्थर उठाकर उसे अधिषवण चर्म पर रखता है और उस पर कुछ सोम डण्ठल रखकर निग्राम्य जल छिड़कता है । अन्य पुरोहित दाहिने हाथों में पत्थर लेकर उठलों को कूटते हैं। इस कृत्य को पर्याग अर्थात् पहला दौर कहते हैं। दूसरे दौर में कूटते समय इधर-उधर बिखरे डण्ठलों को कूटा जाता है। इसी प्रकार कूटने का तीसरा दौर भी चलता है। इसके उपरान्त अध्वर्यु कूटे हुए
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