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धर्मशास्त्र का इतिहास
ब्राह्मण १।१।१, द्राह्यायण श्रौतसूत्र ११ तथा आपस्तम्ब १० | १|१) । वह प्रमुख चार या सभी सोलहों (या 'सदस्य' को सम्मिलित कर १७) ऋत्विजों को बुलाता है ।"
पुरोहितों को मधुपर्क दिया जाता है। यजमान अपने देश के राजा के पास यज्ञभूमि (देवयजन) की याचना के लिए जाता है। यह एक आडम्बर मात्र है, यहाँ तक कि राजा भी ऐसी याचना होता तथा अन्य पुरोहितों से करता है । अपनी भूमि रहने पर भी यजमान को ऐसी याचना करनी पड़ती है।
देवयजन ( यज्ञ - भूमि) के पश्चिम भाग में घास-पात हटाकर एक मण्डप' (विमित- -चार कोणों वाला मण्डप) खड़ा किया जाता है । मण्डप के विषय में कात्यायन ( ७।१।१९-२५), आपस्तम्ब ( १०।५।१ - ५ ) एवं बौधायन (६।१ )* ने विस्तार से वर्णन किया है। मण्डप के दक्षिण में व्रत -भोजन बनाने के लिए एक शाला तथा पश्चिम में पत्नी (यजमान की पत्नी) के लिए दूसरी शाला बना दी जाती है।
यजमान अपने घर ही गार्हपत्य एवं आहवनीय अग्नियों को अरणियों में रख लेता है और पुरोहितों, अरणियों तथा पत्नी के साथ मण्डप में पूर्व द्वार से प्रवेश करता है। अन्य सामग्रियाँ (सम्भार ) मी मण्डप में लायी जाती हैं । मण्डप में एक बेदी बनाकर उसमें घर्षण से उत्पन्न अग्नि रखी जाती है। इसके उपरान्त कई कृत्य किये जाते है, जिनका वर्णन यहाँ आवश्यक नहीं है । मण्डप के बाहर उत्तर में यजमान एक विशिष्ट शाला में नाई से सिर, sia, मुख के केश तथा नख कटा लेता है। इसके उपरान्त उदुम्बर की टहनी से दन्तधावन कर कुण्ड के जल से स्नान करता है तथा आचमन आदि करता । इसी प्रकार यजमान की पत्नी भी प्रतिप्रस्थाता द्वारा आदेशित हो नख कटाती है तथा स्नान आदि करती हैं किन्तु उसके इन कृत्यों में मन्त्रोच्चारण नहीं किया जाता, जैसा कि यजमान के कृत्यों में पाया जाता है। उसके केश नहीं काटे जाते, किन्तु कुछ लेखकों ने केश कटाने की भी व्यवस्था दी है । यजमान अव द्वारा दिये गये रेशमी वस्त्र धारण करता है। अपराह्न में वह प्राग्वंश में बैठकर घी एवं दही से मिश्रित चावल या मनचाहा भोजन करता है । पत्नी भी यही करती है । इसके उपरान्त वह दर्भ की दो फुनगियों से अपने शरीर पर नवनीत लगाता है। यह कृत्य वह चेहरे से आरम्भ कर तीन बार करता है । इसके उपरान्त दर्म से अपनी दायीं आँख में दो बार और बायीं आँख में एक बार अञ्जन लगाता है या तीन बार दोनों आँखों में लगाता है । अध्वर्यु प्राग्वंश के बाहर यजमान की शुद्धि (पवन) करता है। यही बात प्रतिप्रस्थाता उसकी पत्नी के साथ करता है, किन्तु मन्त्रोच्चारण के साथ नहीं । यजमान मण्डप में पूर्व द्वार से तथा उसकी पत्नी पश्चिम द्वार से प्रवेश करती है। दोनों अपने-अपने आसन पर बैठ जाते हैं। इसके उपरान्त दीक्षणीय दृष्टि की जाती है, जिसके फलस्वरूप यजमान दीक्षित समझा जाता है और यज्ञ करने के योग्य माना जाता है (जैमिनि ५।३।२९-३१) । स्थानाभाव के कारण दीक्षणीय इष्टिं का वर्णन यहाँ उपस्थित नहीं किया जा रहा है। दीक्षा का कृत्य अपराह्न में ही किया जाता है। जब तक तारे नहीं दिखाई देते, यजमान मौन धारण किये रहता है। पूरे यज्ञ तक यजमान एवं उसकी पत्नी को दूध पर ही रहना होता है। ऐसा करना ऋत्वर्थ ( अनिवार्य नियम) माना जाता है न कि पुरुषार्थ मात्र (जैमिनि ४/३/८ - ९ ) । यह दूध दो गायों के स्तनों से दुहा जाता है और दो पात्रों में पृथक्-पृथक् गर्म किया जाता है; यजमान के लिए गार्ह
२. सोलह पुरोहितों संबंधी विवरण देखिए अध्याय २९, टि० ३ में ।
३. मण्डप को प्राग्वंश या प्राचीन वंश कहा जाता है। कुछ लोगों के मत से यह पश्चिम से पूर्व १६ प्रक्रम लम्बा तथा दक्षिण से उत्तर १२ प्रक्रन चौड़ा होता है। इसमें ४ या ५ ( एक द्वार उत्तर-पूर्व में होता है) द्वार तथा चारों दिशाओं में छोटे-छोटे प्रवेश-स्थल होते हैं (देखिए आपस्तम्ब १०/५1५) ।
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