Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 566
________________ पशुबन्ध यज्ञ दी जाती है (आपस्तम्ब ७।१२।३)। इसके उपरान्त पशूपाकरण कृत्य किया जाता है जो कुश एवं मन्त्रों के साथ पशु को छूकर देवों के लिए उसे समर्पित करने से सम्बन्धित है। कुछ अन्य कृत्यों के उपरान्त पशु को जल पिलाया जाता है और उसके कतिपय अंगों पर जल छिड़का जाता है। पशु की बलि इन्द्र-अग्नि, सूर्य या प्रजापति के लिए दी जाती है और बलि करनेवाले को प्रत्येक पशुबन्ध में जीवन भर उस देवता के लिए, जिसे वह प्रथम बार चुनता है, ऐसा करना पड़ता है (कात्यायन ६।३।२९-३०)। इस यज्ञ से सम्बन्धित अन्य कृत्यों का वर्णन यहाँ आवश्यक नहीं है। अध्वर्यु शमिता (पशु मारनेवाले) को अस्त्र देता है। यह क्रिया मन्त्र आदि के साथ की जाती है। जब पशु काट दिया जाता है तो उसकी आँतें आदि एक विशिष्ट गड्ढे में दबा दी जाती हैं। जिस अग्नि पर पशु का मांस पकाया जाता है उसे शामित्र कहते हैं। पशु का मुख इस प्रकार बाँध दिया जाता है कि काटते समय उसके मुख से स्वर न निकले। अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, आग्नीध्र एवं यजमान अपना मुख काटे जाते हुए पशु से दूसरी ओर हटा लेते हैं। यजमान ऐसे मन्त्रों का उच्चारण करता है जिनका तात्पर्य यह है कि वह पशु के साथ स्वर्ग की प्राप्ति करे। जब पशु मर जाता है तो यजमान की पत्नी उसके मुख, नाक, आँखों, नाभि, लिंग, गुदा, पैरों को मन्त्र के साथ स्वच्छ कर देती है। इसी प्रकार अन्य कृत्य भी किये जाते हैं। सभी पुरोहित (छः), यजमान और उसकी पत्नी मार्जन द्वारा अपने को शुद्ध करते हैं। इसके उपरान्त पशु-पुरोडाश बनाने के लिए प्रबन्ध किया जाता है और आवश्यक पात्रों को आहवनीय के पूर्व में रख दिया जाता है। अध्वर्यु पशु के विभिन्न अंगों, यथा हृदय, जिह्वा आदि को पृथक् करता है। आपस्तम्ब (७।२२।५ एवं ७) के अनुसार यह कार्य शमिता करता है। इस यज्ञ से सम्बन्धित बहुत-सी बातों का अर्थ आजकल भली भाँति लगाया नहीं जा सकता, क्योंकि मध्य-काल में पशु-यज्ञ बहुत कम होते थे, और अन्त में बन्द हो गये, अतः निबन्धकारों ने उन पर अपनी विस्तृत टीका-टिप्पणी नहीं की है। इसी कारण बहुत-से मत-मतान्तर पाये जाते हैं। आपस्तम्ब (७।२२।६) के मत से पशु के काटे हुए अंग ये हैं-हृदय, जिह्वा, छाती, कलेजा, वृक्क, बायें पैर का अग्र भाग, दो पुढें, दाहिनी जंघा, मध्य की अंतड़ियाँ । ये अंग देवता के लिए हैं जो जुहू से दिये जाते हैं। दाहिने पैर का अग्र भाग, बायीं जंघा, पतली अंतड़ियाँ स्विष्टकृत् को दी जाती हैं। दाहिना फेफड़ा, प्लीहा, पुरीतत्, अध्यघ्नी, वनिष्ठु (बड़ी अंतड़ियाँ), मेदा, जाघनी (पूंछ) आदि भी आहुतियों के रूप में दिये जाते हैं। सभी अंग (हृदय को छोड़कर) उखा (एक विशिष्ट पात्र) में पकाये जाते हैं। हृदय को एक अरनि लम्बी लकड़ी में खोसकर पृथक रूप से भूना जाता है। शमिता ही पकाने का कार्य करता है। जैमिनि (१२।१।१२) के मत से मांस पकाने का कार्य शालामुखीय अग्नि पर, न कि शामित्र अग्नि पर, होता है। अध्वर्य पके हुए मांस को घी में लपेटकर इन्द्र एवं अग्नि, स्विष्टकृत् एवं अग्नि स्विष्टकृत् को आहुतियों के रूप में देता है । इस प्रकार अध्वर्यु पूरे मांस का बहुत-सा भाग अग्नि में डाल देता है। शेष भाग का कुछ अंश ब्रह्मा को तथा अन्य भाम अन्य पुरोहितों को दिया जाता है। शमिता द्वारा अलग से पकाये गये हृदय तथा अन्य शेष भाग को अध्वर्यु यूप तथा आहवनीय अग्नि के बीच में वेदी के दक्षिण भाग में रख देता है तथा अन्य कृत्य करता है। सम्पूर्ण पशु को यज्ञिय वस्तु कहा जाता है। जिस प्रकार धान (चावलों) को चरु का पदार्थ माना जाता है उसी प्रकार पूरे पशु को यज्ञिय वस्तु की संज्ञा मिलती है। हृदय एवं अन्य अंगों को हवि के रूप में ही दिया जाता है। ४. अध्वर्य, ब्रह्मा, होता, आग्नीध्र, प्रतिप्रस्थाता एवं मंत्रावरण। Jain Education International Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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