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अध्याय ३२
पशुबन्ध या निरूढ - पशुबन्ध'
पशुबन्ध एक स्वतन्त्र यज्ञ है और सोमयज्ञों में इसका सम्पादन उनका एक अभिन्न अंग माना जाता है। स्वतन्त्र पशुयज्ञ को निरूढ- पशुबन्ध (आँत निकाले हुए पशु की आहुति ) कहा जाता है तथा अन्य गौण पशुयज्ञों की सौमिक ( आश्व० ३।८। ३ - ४ ) संज्ञा है । जैसा कि जैमिनि ( ८|१|१३ ) का उद्घोष है, निरूढ - पशु सोमयाग में प्रयुक्त पशुबलि (अग्नीषोमीय पशु) का परिमार्जन मात्र है, किन्तु कतिपय सूत्रों के निरूढपशु नामक परिच्छेद में दोनों की विधि का पूर्ण विवेचन हुआ है ( देखिए, कात्यायन ६।१०।३२ एवं कात्यायन ६।१।३१ की टीका ) । सवनीय-पशु एवं अनुबन्ध्यपशु के अतिरिक्त सभी पशुयज्ञों का आदर्श रूप (प्रकृति) वास्तव में निरूढ पशुबन्ध ही है । आहिताग्नि को जीवन भर प्रति छः मास उपरान्त या प्रति वर्ष स्वतन्त्र रूप से पशुयज्ञ करना पड़ता था।' प्रति वर्ष किये जाने पर वर्षा ऋतु ( श्रावण या भाद्रपद) की अमावस्या या पूर्णिमा के दिन या प्रति छः मास पर किये जाने पर दक्षिणायन एवं उत्तरायण के आरम्भ में यह किया जाता था। तब यह किसी भी दिन सम्पादित हो सकता था और उसके लिए अमावस्या या पूर्णिमा का दिन आवश्यक नहीं माना जाता था। आश्वलायन ( ३।१।२-६ ) के मत से पशुबन्ध के पूर्व या उपरान्त विकल्प से कोई इष्टि की जा सकती थी और वह या तो अग्नि या अग्नि-विष्णु अथवा अग्नि और अग्नि- विष्णु के लिए होती थी । इस यज्ञ में एक छठा पुरोहित होता था मैत्रावरुण ( या प्रशास्ता)। हम पहले ही देख चुके हैं कि चातुर्मास्यों में पांच पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती है। अग्निष्टोम ऐसे यज्ञ में यजमान को उदुम्बर की छड़ी दी जाती है । पशुबन्ध में पुरोहितों के चुनाव के उपरान्त जब मैत्रावरुण यज्ञभूमि में प्रवेश करता है तो अध्वर्यु (कुछ शाखाओं के अनुसार यजमान) उसे यजमान के मुख तक लम्बी छड़ी मन्त्र के साथ देता है और मंत्रावरुण मन्त्र के साथ उसे ग्रहण करता है। इसके उपरान्त कुछ अन्य कृत्य होते हैं जिन्हें यहाँ देना आवश्यक नहीं है । अध्वर्यु आहवनीय में घृत छोड़ता है । इस क्रिया को यूपाहुति कहते हैं। इसके उपरान्त अध्वर्युं वनस्थली में किसी बढ़ई ( तक्षा ) के साथ जाता है । यज्ञ-स्तम्भ या यूप का निर्माण पलाश, खदिर, बिल्व या रोहितक नामक वृक्ष के काष्ठ से होता है।' किन्तु सोमयज्ञ में यथासम्भव खदिर का ही यूप निर्मित होता है। वृक्ष हरा होना चाहिए, उसका ऊपरी भाग शुष्क नहीं होना चाहिए। वह सीधा खड़ा हो तथा उसकी टहनियाँ ऊपर की ओर उठी हों; इतना ही नहीं, टहनियों का झुकाव
१. देखिए शतपथब्राह्मण ३०६/४, ११/७/१; तैत्तिरीय संहिता १।३।५-११, ६ | ३|४; कात्यायन ६; आपस्तम्ब ७; आश्वलायन ३१-८ एवं बौधायन ४ ।
२. मन (४।२६) ने भी अपनों के आरम्भ में पशुयज्ञ की व्यवस्था कही है। आपस्तम्ब (७/८/२-३ ) एवं बौधायन ( ४१ ) ने पशुबन्ध में प्रयुक्त सामग्रियों एवं यज्ञपात्रों का वर्णन किया है।
३. यूप के विषय में विस्तार से जानने के लिए देखिए शतपथब्राह्मण (३।६।४ से लेकर ३।७११ तक ) तथा ऐतरेय ब्राह्मण (६।१।३) ।
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