Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 565
________________ ५४२ धर्मशास्त्र का इतिहास दक्षिण की ओर नहीं होना चाहिए। अध्वर्युं, ब्रह्मा, यजमान एवं बढ़ई चुनाव के उपरान्त वृक्ष को मन्त्र ( वाजसनेयी संहिता ५।४२, तैत्तिरीयसंहिता १।३।५ ) के साथ स्पर्श करते हैं। इसके उपरान्त मन्त्रों आदि के साथ अध्वर्यु कुल्हाड़ी लगाता है। बढ़ई उस वृक्ष को इस प्रकार काटता है कि पृथ्वी में बचा हुआ भाग रथ के चक्कों को न रोक सके। कटे हुए वृक्ष को दक्षिण की ओर नहीं गिरना चाहिए, बल्कि उसे पूर्व, उत्तर या उत्तर-पूर्व में गिरना चाहिए। वृक्ष गिर जाने के उपरान्त मन्त्रोच्चारण होता है । इस प्रकार कटे हुए यूप की लम्बाई के विषय में कई मत प्रकाशित किये गये हैं ( आपस्तम्ब ७।२।११-१७; कात्यायन ६।१।२४-२६) । कुछ लोगों के मत से यूप एक अरत्नि से ३३ अरत्नियों तक हो सकता है । किन्तु कात्यायन साधारणतः तीन या चार अरत्नियों की लम्बाई की ओर संकेत किया है। शतपथ ब्राह्मण (९/७/४११) ने भी यही कहा है। कात्यायन (६।१।३१ ) ने सोमयज्ञ के यूप की लम्बाई पाँच से पन्द्रह अरत्नियों तक उचित ठहरायी है । उन्होंने इसी प्रकार वाजपेय यज्ञ के यूप को १७ अरत्नि तथा अश्वमेघ के यूप को २१ अरत्नि लम्बा माना है। आपस्तम्ब के मत से यूप यजमान की लम्बाई या उसके हाथ के ऊपर उठने तक की लम्बाई का होना चाहिए। यूप की मोटाई के विषय में कोई मत नहीं है। यूप के उस भाग को जो पृथिवी में गड़ा रहता है, उपर कहा जाता है। उपर अनगढ़ रहता है, किन्तु खूप का अन्य भाग ठीक से छिला रहता है और ऊपरी भाग कुछ पतला कर दिया जाता है। धूप की पूरी लम्बाई को ऊपर तक इस प्रकार छीला जाता है कि उसमें आठ कोण बन जायें, जिनमें एक कोण अन्य hi से बड़ा होता है और अग्नि की ओर झुका रहता है। यूप निर्माण के उपरान्त वृक्ष के बचे हुए ऊपरी अंश से कलाई से अंगुली के पोर तक लम्बा शिरस्त्र बनाया जाता है। यह शिरस्त्र भी अठकोना और बीच में ऊखल की भाँति होता है । इस भाग को चषाल कहा जाता है जो यूप पर पगड़ी की भाँति रखा जाता है ( कात्यायन ६।१।३ ) । निरूढ - पशुबन्ध में दो दिन लग जाते हैं, किन्तु यह एक दिन में भी सम्पादित हो सकता है। प्रथम दिन में, जिसे उपवसथ कहा जाता है, आरम्भिक कार्य, यथा वेदिका - निर्माण, यूप लाना आदिकिया जाता है। इस यज्ञ में केवल एक वेदी बनायी जाती है जो वरुणप्रघास वाली की भाँति आहवनीय अग्नि के पूर्व में होती है, न कि दर्शपूर्ण मास वाली की भाँति पश्चिम में । वेदी का विस्तार कई प्रकार से बताया गया है जिसका वर्णन यहाँ अनपेक्षित है। इस वेदी पर एक उत्तरवेदी ( ऊँची वेदी) का निर्माण होता है । वेदी की पूर्व दिशा के उत्तरी कोण से लेकर शम्या ( ३२ अंगुल) वर्ग परिमाण का एक गड्ढा खोदा जाता है जिसे चात्वाल कहा जाता और वह तीन वित्ता (वितस्ति) या ३६ अंगुल गहरा होता है । इसी प्रकार विभिन्न कृत्यों एवं मन्त्रों से युक्त भाँति-भाँति की सामप्रिय उत्पन्न की जाती हैं और उन्हें यथास्थान रखा जाता है, जिनका वर्णन यहाँ स्थानाभाव से नहीं किया जा रहा है। यूप गाड़ने की भी विधि वर्णित है। एक नहीं कई यूप गाड़े जाते हैं, ग्यारह यूपों की परम्परा पायी जाती है। यूप के लिए प्रोक्षण (जल छिड़कना), अंजन, उछ्रयण (ऊपर उठाना), परिव्याण या परिव्ययण ( मेखला या करनी से घेरने की क्रिया) आदि के कृत्य किये जाते हैं। ये क्रियाएँ केवल एक ही बार की जाती हैं, न कि प्रति पशु की बलि के उपरान्त । मेखला यूप का अंग है न कि पशु का, न प्रत्येक पशु के साथ एक-एक आवश्यकता होती है। मेखला की बलि का पशु सुगंधित जल से नहलाया जाता है और चात्वाल एवं उत्कर के बीच में रखा जाता है। उसका मुख पश्चिम में यूप के पूर्व होता है। पशु नर ( छाग = बकरा ) होता है, उसका अंग-भंग नहीं होना चाहिए, अर्थात् उसके सींग न टूटे हों, काना न हो, कनकटा या कनफटा न हो, दाँत न टूटे हों और न पुच्छ-विहीन हो, न तो लंगड़ा हो और न सात खुरों (प्रत्येक पैर में दो खुर होते हैं, इस प्रकार चार पैरों के आठ खुर) वाला हो । यदि उपर्युक्त दोषों में कोई दोष विद्यमान हो तो शुद्धि के लिए विष्णु, अग्नि-विष्णु, सरस्वती या बृहस्पति को आज्य की आहुति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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