Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 562
________________ चातुर्मास्य इष्टिय ५३९ अग्निष्वात्त पितरों को दिया जाता है। आश्वलायन ( २।१९।२१) ने यम देवता को भी सम्मिलित कर लिया है । इस कृत्य सम्बन्धी अन्य विस्तार स्थानाभाव से छोड़ दिये जा रहे हैं। मेघ की अन्तिम क्रिया त्रैयम्बक होम है ( देखिए तै० सं० ११८/६, शतपथ ब्राह्मण २।६।२।१-१७, आश्व० २।१९।३७।४०, आप० ८।१७-१९, बौधा० ५।१६-१७, कात्या० ५। १० ) । यह होम रुद्र के लिए किया जाता है । विस्तार वर्णन के लिए यहाँ स्थान नहीं है । शुनासीरीय चातुर्मास्यों की अन्य पाँच आहुतियों के अतिरिक्त इस इष्टि में विशिष्ट आहुतियाँ हैं— बारह कपालों वाली रोटी (वायु एवं आदित्य के लिए तथा आपस्तम्ब के अनुसार इन्द्र सुनासीर के लिए), धारोष्ण दूध ( वायु के लिए), एक कपाल वाली रोटी ( सूर्य के लिए ) । इस कृत्य में न तो उत्तरवेदी होती है और न घर्षण से उत्पन्न अग्नि । पाँच प्रयाज, तीन अनुयाज एवं एक समिष्टयजु होते हैं। आपस्तम्ब (८/२०१६ ) के मत से नौ प्रयाज एवं अनुयाज होते हैं। दक्षिणा के रूप में छः बैलों या दो बैलों के साथ हल होता है । कात्यायन ( ५।११।१२-१४) के मत से एक सफेद बैल, तैत्तिरीय संहिता ( ११८१७ ) के मत से १२ बैलों के साथ एक हल तथा आपस्तम्ब ( ८ | २० | ९-१० ) के मत से १२ या ६ बैलों के साथ एक हल होता है । ऋग्वेद (४।५७/५ एवं ८) में 'शुनासीरों' का उल्लेख है। ऋग्वेद (४१५७१४ एवं ८) में 'शुन' शब्द कई बार आया है । इसका अर्थ सन्देहास्पद है । यास्क के निरुक्त ( ९१४० ) के अनुसार 'शुन' एवं 'सीर' का अर्थ है-क्रम से वायु एवं आदित्य । किन्तु शतपथ ब्राह्मण ( २।६।३।२ ) में 'शुन' का अर्थ है 'समृद्धि' एवं 'सीर' का अर्थ है 'सार' और इस इष्टि को यह संज्ञा इसलिए मिली है कि इससे यजमान को समृद्धि एवं सार की प्राप्ति होती है । आग्रयण इस कृत्य के विस्तार के लिए देखिए शतपथ ब्राह्मण ( २/४१३ ), आपस्तम्ब ( ६।२९।२), आश्वलायन ( २/९), कात्यायन (४।६), बौधायन ( ३।१२) । यह वह इष्टि है जिसे सम्पादित किये बिना नवीन चावल, जौ, सावाँ (श्यामाक) एवं अन्य नवीन अन्नों का प्रयोग आहिताग्नि नहीं कर सकता था । यह कृत्य पूर्णिमा या अमावस्या के दिन किया जाता था। चावलों के अनुसार इस कृत्य का काल शरद ऋतु था।" जौ वसन्त में पकते हैं, अतः इनका आग्रयण कृत्य वसन्त ऋतु में किया जाता था । आश्वलायन ने विकल्प दिया है कि एक बार शरद में आग्रयण कर लेने पर यव के लिए इसका सम्पादन पुनः नहीं भी किया जा सकता है। श्यामाक ( सावाँ ) की इष्टि वर्षा ऋतु में की जाती है और सोम को चरु दिया जाता है। 'आग्रयण' दो शब्दों से बना है; 'अग्र' एवं 'अयन' । 'अग्र' का अर्थ है प्रथम फल एवं है । इस गाय का दूध आधे भूने हुए जौ वाले पात्र में रखा जाता है। उसे दो-एक बार ईख के डण्ठल से हिला दिया जाता है। ईख के डण्ठल में एक रस्सी बँधी रहती है जिसे पकड़कर दूध हिलाया जाता है । हिलाने वाला ईख को हाथ से नहीं पकड़ता। यह हिलाना या मथना दाहिने से बायें होता है। इस प्रकार के मन्थन से प्राप्त वस्तु को मन्थ कहा जाता है। ५. यदा वर्षस्य तृप्तः स्यादथाप्रयणेन यजेत ।.. अपि वा क्रिया यवेषु । आश्व० २।९१३ ५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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