Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 540
________________ अग्निहोत्र ५१७ अग्नि से और आश्वलायन के अनुसार वैश्य के घर से या किसी धनिक के घर से लायी जा सकती है या घर्षण से उत्पन्न की जा सकती है। गार्हपत्याग्नि की वेदी वृत्ताकार, आहवनीयाग्नि की वर्गाकार तथा दक्षिणाग्नि की अर्धवृत्ताकार होती है। उपर्युक्त तीनों पवित्र अग्नियों की प्रतिष्ठा के विषय में बहुत विस्तार से वर्णन पाया जाता है जिसे स्थानाभाव के कारण यहाँ छोड़ा जा रहा है। ___ सम्य एवं आवसथ्य नामक अग्नियों की प्रतिष्ठा गृह्याग्नि से या घर्षण से उत्पन्न अग्नि से की जाती है। इनकी स्थापना गोत्र के अनुसार कृत्य करके आहवनीयाग्नि से अग्नि लेकर भी की जाती है। अध्वर्यु इनमें प्रत्येक अग्नि पर अश्वत्य की तीन समिधाएँ रखता है और ऋग्वेद के तीन मन्त्रों (९।६६।१९, २० एवं २१) का उच्चारण करता है, इसी प्रकार वह शमी की तीन समिषाएँ घृत के साथ संयुक्त कर अन्य तीन मन्त्रों (ऋ० ४१५८११-३) के साथ उन अग्नियों पर रखता है। यदि ये दोनों अग्नियां नहीं प्रज्वलित की जाती तो समिधा आहवनीयाम्नि पर ही रख दी जाती हैं। इसके उपरान्त अध्वर्यु पूर्णाहुति देता है, यजमान दान करता है, मन्त्रोच्चारण करता है और पांचों (या केवल तीन) अग्नियों की पूजा करता है। यदि यजमान क्षत्रिय है तो वहीं जुआ खेला जाता है। चारों पुरोहितों को वस्त्र, एक गाय एवं एक बैल, एक नये रथ का दान किया जाता है, इसी प्रकार ब्रह्मा को एक बकरी, एक पूर्णपात्र एवं एक घोड़ा, अध्वर्यु को एक बैल तथा होता को एक धेनु का दान किया जाता है। यजमान की शक्ति के अनुरूप दान की संख्या एवं मात्रा में अधिकता हो सकती है। ____ कात्यायन० (४।१०।१६) के मत से वैदिक अग्नियों की प्रतिष्ठापना के उपरान्त यजमान १२ रात्रियों या ६ रात्रियों या ३ रात्रियों तक ब्रह्मचर्य से रहता है और अग्नियों के पास पृथिवी पर ही शयन करता है तथा अग्नियों में दूध का होम करता है। बौधायन (२०५०) ने तो १२ दिनों तक के लिए कुछ व्रतों की भी व्यवस्था दी है। पुनराधेय-वर्ष के भीतर ही यदि व्यक्ति वैदिक अग्नियों की प्रतिष्ठापना के उपरान्त किसी भयंकर रोग (यथा जलोदर) से पीड़ित हो जाता है, या दरिद्र हो जाता है, या उसका पुत्र मर जाता है, या उसके निकट-सम्बन्धी कष्ट पाने लगते हैं या शत्रुओं द्वारा बन्दी बना लिये जाते हैं, या वह स्वयं लूला-लॅगड़ा हो जाता है, या वह समृद्धि का इच्छुक होता है या यश-कीर्ति कमाना चाहता है, तो पुनः अग्नियाँ प्रज्वलित करता है। अग्नि प्रज्वलित करने की विधि अग्न्याधेय की भाँति ही है, केवल कुछ अन्तर है, तथा अग्नियों को कुश घास दी जाती है न कि लकड़ी या ईंधन, दोनों ही आज्यभाग केवल अग्नि के लिए होते हैं न कि यज्ञ की भांति अग्नि एवं सोम दोनों के लिए। पुनराधेय वर्षा ऋतु एवं दोपहर में किया जाता है। अन्य अन्तरों को स्थानाभाव के कारण यहाँ उपस्थित नहीं किया जा रहा है (देखिए तै० सं० १।५।१-४, तै० ब्रा० ११३।१, शतपथ ब्राह्मण २।२।३, आश्व० २।८।४-१४, आप० ५।२६-२९, कात्या० ४१११, बोधा० ३।१-३)। जैमिनि (६।४।२६-२७) के मत से पनराधेय एक प्रकार का प्रायश्चित्त भी है जो गाईपत्याग्नि एवं आहवनीयाग्नि के बुझ जाने या समाप्त हो जाने के प्रायश्चित्त स्वरूप किया जाता है। किन्तु जैमिनि (१०।३। ३०-३३) के मत से जब किसी विशिष्ट इच्छा से उत्पन्न पुनराधेय किया जाता है तो अग्याधेय की दक्षिणा न देकर दूसरे प्रकार की दक्षिणा दी जाती है। अग्निहोत्र गौतम (८।२०) द्वारा निर्दिष्ट सात हविर्यज्ञों में अग्निहोत्र का स्थान दूसरा है। अग्न्याधेय के सायंकाल से ही गृहस्थ को अग्निहोत्र करना पड़ता है। अग्निहोत्र प्रातः एवं सायं दो बार जीवनपर्यन्त या संन्यासी होने तक या जैसा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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