Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 545
________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ५२२ ही उचित मानते हैं और कुछ लोग प्रातः एवं सायं दोनों समयों के लिए (देखिए आप ० ६ । १९।४-९ से लेकर ६।२३ तक ) । क्षत्रियों के विषय में अग्निहोत्र के लिए आप० (६।१५।१०-१३) ने कुछ मनोरम नियम दिये हैं। आपस्तम्ब कहना है कि क्षत्रिय को आहवनीयाग्नि सदैव रखनी चाहिए. चाहे वह आह्निक अग्निहोत्र करे या न करे। जब साधारण रूप से अग्निहोत्र किया जाय तो क्षत्रिय को चाहिए कि वह अपने घर से ब्राह्मण के लिए भोजन भेजे, जिससे कि उसे अग्निहोत्र करने का पूर्ण लाभ प्राप्त हो, और अध्वर्यु को चाहिए कि वह क्षत्रिय ( राजन्य ) से अग्न्युपस्थान (अग्निस्तुति के मन्त्रों) का पाठ कराये। जिस राजन्य ने सोमयज्ञ कर लिया हो और जो सत्य बोलता हो, वह आह्निक अग्निहोत्र कर सकता है। आश्व० (२1१1३-५ ) के मतानुसार क्षत्रिय एवं वैश्य अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन अग्निहोत्र कर सकते हैं तथा अन्य दिनों में उन्हें किसी कर्तव्यपरायण ब्राह्मण के यहाँ पका हुआ भोजन भेजना चाहिए। किन्तु वह क्षत्रिय या वैश्य, जो विचार एवं शब्द (वचन) से सत्यवादी है और सोमयज्ञ कर चुका है, आह्निक (प्रति दिन वाला) affair कर सकता है । लगता है, इन नियमों द्वारा क्षत्रियों एवं वैश्यों को अन्य कार्य करने के लिए अधिक समय एवं अवसर प्रदान किये गये थे । आप० ( ६ १५ | १४-१६), आश्व० ( ३।४।२-४ ) तथा अन्य लोगों के मत से गृहस्थ को स्वयं प्रति दिन अग्निहोत्र करना चाहिए, यदि वह ऐसा न कर सके तो कम-से-कम पर्व के दिनों में तो उसे अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए। उसके लिए पुरोहित, शिष्य या पुत्र भी अग्निहोत्र कर सकता है। 2 1 आश्व० प्रातः एवं सायंकाल के अग्निहोत्र की विधियाँ सामान्यतः एक-सी हैं, केवल विस्तार में कुछ भेद है, यथा ( २/४/२५ ) में प्रातः का पर्युक्षण - मन्त्र कुछ और है और सायं का कुछ और ( आश्व० २।२।११) । इसी प्रकार कुछ अन्य अन्तर भी हैं ( आश्व० २।४।२५ एवं २ |२| १६ ) । अन्य बातों के लिए देखिए कात्या० (४११५) । एक रात्रि के लिए या लम्बी अवधि के लिए जब गृहस्थ बाहर जाता है, तो उसे अग्निहोत्र के विषय में क्या करना चाहिए ? इसके विषय में सूत्रों में बहुत से नियम पाये जाते हैं। देखिए शतपथ ब्रा० ( २२४।९।३-१४), आश्व० ( २२५), आप० (६।२४-२७), कात्या० (४।१२।१३-१४ ) । आश्व० के मत से महत्वपूर्ण नियम ये हैं वह अग्नि उद्दीप्त कर देता है (ज्वाला में परिणत कर देता है), आचमन करता है और आहवनीय, गार्हपत्य तथा दक्षिणाग्नि पास जाकर उनकी पूजा 'शंस्य पशून् मे पाहि', 'नर्य प्रजां मे पाहि' एवं 'अथर्व पितुं मे पाहि' नामक मन्त्रों (वाजसनेयी सं० ३।३७ ) के साथ करता है। इसके उपरान्त दक्षिणाग्नि के पास खड़े होकर उसे अन्य दोनों अग्नियों की ओर 'इमान् में मित्रावरुणौ गृहान् • गोपायतं... पुनरायनात्' (काठक सं० ६१३, मैत्रायणी संहिता १।५।१४ – कुछ अन्तरों के साथ ) नामक मन्त्र के साथ देखना चाहिए। वह पुनः आहवनीय के पास आकर उसकी पूजा करता है ( तै० सं० ११५१०११ नामक मन्त्र के साथ ) । इसके उपरान्त उसे विना पीछे देखे यात्रा ' लग जाना चाहिए और 'मा प्रणम' नामक स्तुति का पाठ करना चाहिए। जब वह ऐसे स्थल पर पहुँच जाता है, जहाँ से उसके घर की छत नहीं दिखाई पड़ती, तब वह अपना मौन तोड़ता है । जब अपने घर से गन्तव्य स्थान के मार्ग की ओर पहुँचे तो उसे 'सदा सुगः' (ऋ० ३।५४।२१) का पाठ करना चाहिए। जब वह यात्रा से घर लौट आये, उसे 'अपि पन्थाम्' (ऋ० ६।५१/१६ ) का पाठ करना चाहिए। इसके उपरान्त उसे मौन साधना चाहिए, अपने हाथ में समिधाएँ लेनी चाहिए और यह सुनने पर कि उसके पुत्र या शिष्य ने अग्नियाँ उद्दीप्त कर दी हैं, उसे आहवनीय की ओर आश्व० (२/५/९ ) के दो मन्त्रों के साथ देखना चाहिए। इसके उपरान्त समिधाएँ डालकर उसे 'मम नाम तव च' ( तै० सं० ११५/१०/१) नामक मन्त्र से आहवनीय की पूजा 'करनी चाहिए। तब उसे वाज० सं० (३१२८-३०) के एक-एक मन्त्र के साथ आहवनीय, गार्हपत्य एवं दक्षिणाग्नि में समिधाएँ डालनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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