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वर्श-पूर्णमास
५२७ है, जिनमें १५ सामिधेनी मन्त्रों के उच्चारण के साथ अग्नि में डालने के लिए होती हैं, ३ परिधियाँ होती हैं, २ का प्रयोग दो आधारों के लिए तथा अन्तिम अर्थात् २१वीं समिधा अनुयाज के लिए होती है। दर्न से बनी रस्सी को पृथिवी पर बिछा दिया जाता है जिस पर मन्त्र के साथ (आप० ११६६१, शत० ब्रा० ११२,१०८९) इध्मों का ढेर रख दिया जाता है। इध्म का गट्ठर बर्हि के गट्ठर के पास ही रख दिया जाता है। इध्म काटते समय लकड़ी के जो भाग बच रहते हैं उन्हें इध्मप्रवचन कहा जाता है। दर्भ के एक गुच्छ से वेद का निर्माण किया जाता है, जिसका आकार एक बछड़े के घुटने के बराबर होता है। वेद से मन्त्र के साथ वेदी का स्थल स्वच्छ किया जाता है। यजमान की स्त्री को यह वेद दे दिया जाता है। वेद बनाने से दर्भ के जो भाग बच रहते हैं उन्हें वेद-परिवासन कहा जाता है। इसके उपरान्त इध्मप्रवश्चन एवं वेद-परिवासन को एक साथ रख दिया जाता है। इसके उपरान्त वह एक टहनी लेता है, उसकी पत्तियाँ (कुछ को छोड़कर) काट देता है, और नोकदार एक काष्ठकुदाल बना लेता है, जिसे उपवेष की संज्ञा दी गयी है। उपवेष का मन्त्र पढ़ा जाता है (आप. ११६।७) । पूर्णमासी के यज्ञ में उपवेष का निर्माण मौन रूप से किया जाता है। तब वह उपवेष पर तीन दर्भगुच्छ रखता है और उनका मन्त्र के साथ आह्वान करता है। दर्भ के इस रूप को पवित्र कहा जाता है (ले० प्रा० ३।७।४, आप० १।६।१०, शत० ब्रा० १॥३, पृ० ९२)।
इसके उपरान्त अपराल में पिण्ड-पितृयज्ञ किया जाता है। यह कृत्य दर्शष्टि में ही होता है न कि पूर्णमासेष्टि में। हम पिण्डपितृयज्ञ का वर्णन आगे करेंगे।
सायंदोह-यदि यजमान ने कभी सोमयज्ञ कर लिया है तो उसे सायंदोह का सम्पादन करना पड़ता है। माय अग्निहोत्र सम्पादन के उपरान्त गृहस्थ गार्हपत्य के उत्तर दर्भ फैला देता है, सान्नाय्य पात्रों को (जो सायंदोह में भी प्रयुक्त होते हैं) दो-दो करके धोता है और उन्हें दर्भ पर अधोमुख करके रख देता है। इसके उपरान्त वह समान आकृति एवं वर्ण वाले दो दर्भो के दो पवित्र लेता है, जो एक बित्ता लम्बे होते हैं और जिनकी नोंक कटी हुई नहीं होती, और जो तने से चाकू या हँसिया द्वारा काटे गये हैं न कि नखों से, और जिनको काटते समय मन्त्रोच्चारण किया गया है (ते.
६. परिधि का तात्पर्य हे लकड़ी की वह छड़ी जो वृत्ताकार हो; 'अग्नेः परितो धीयन्ते तानि दारूणि परिधयः' (शत० ब्रा० १२ का भाष्य०, पृ० ८८)। ऐसी लकड़ियाँ (समिधाएँ) पलाश, काश्मर्य, खदिर, उदुम्बर आदि यज्ञिय (यज्ञ के काम में आने वाले) वृक्षों की होती हैं। वे गोली या सूखी हो सकती हैं, किन्तु छिलके के साथ ही प्रयुक्त होती हैं। मध्य वाली सबसे मोटी, दक्षिण वाली सबसे लम्बी तथा उत्तर वाली सबसे पतली एवं छोटी होनी चाहिए (आप० ११५७-१० एवं कात्या० २१८११)। परिधियाँ तीन बित्तों की या एक बाहु लम्बी होती हैं, समिधाएं दो बित्तों की (प्रादेश, अर्थात् अंगूठं से लेकर तर्जनी तक को) होती हैं।
७. सान्नाय्य या सायंवोह पात्रों की तालिका यों है-अग्निहोत्रहवणीमुखामुपवेषं शाखापवित्रमभिषानी निवाने वोहनमयस्पात्रं दारुपात्रं वा पिधानार्थम्। सत्याषाढ ११३, पृ.० ९३। ये पात्र आठ हैं। इनके लिए देखिए आप. (१३१११५) । अग्निहोत्रहवणी एवं उपवेश में प्रथम वह पात्र हैं जिसके द्वारा अग्निहोत्र किया जाता है और वह विकंकत काष्ठ का बना होता है । अङ्गारप्रेषणार्थ काष्ठमुपवेष इति समाख्यायते', अर्थात् उपवेष वह है जिसके द्वारा अंगार हटायेंया बढ़ाये जाते हैं। उखा तो आपस्तम्ब की कुम्भी ही है, यह मिट्टी का एक बड़ा पात्र होता है। अभिधानी वह रस्सी है, जिससे गाय या बछड़ा बाँधा जाती है। दोनों निदान वे रस्सियाँ हैं जिनसे गाय के पीछे के पैर (खुर एवं जांध के पास) बाँधे जाते हैं। दोहन वह पात्र है जिसमें गाय दुही जाती है। दोहन को ढंकने के लिए काठ या धातु का ढक्कन होता है। शाखापवित्र उस शाखा से निमित होता है जिससे उपवेष बना होता है।
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