Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 559
________________ ५३६ धर्मशास्त्र का इतिहास चर बनाया जाता है। दोनों के लिए अनुवाक्या पद भी होते हैं ( आश्वलायन २।१५।२ एवं ऋग्वेद ७।१०२1१ ) । याज्या पद भी गाये जाते हैं (ऋग्वेद १९८।२ एवं ५।८३०४) । वैश्वदेव पर्व में ही (सभी चातुर्मास्यों में पाँच आहुतियाँ सामान्य रूप से दी जाती हैं) तीन अन्य आहुतियाँ हैं, यथा - मरुत स्वतवों या मरुतों के लिए एक पुरोडाश ( सात कपालों वाला), सभी देवों (विश्वे देवों) के लिए एक पयस्या ( या आमिक्षा) तथा द्यावापृथिवी के लिए एक कपाल वाली रोटी। कात्यायन (५।१।२१-२४) के मत से वैश्वदेव पर्व ऐसे स्थल पर करना चाहिए जो पूर्व की ओर झुका हुआ हो । यजमान और पत्नी नया वस्त्र धारण करते हैं जिसे वे दोनों पुनः वरुणप्रघास पर्व में धारण करते हैं। शतपथ ब्राह्मण ( २/५/१ ) के आधार पर कात्यायन ( ५११।२५-२६) का मत है कि बहिं ( वह पवित्र दर्भ जिसे यज्ञ स्थल पर बिछाया जाता है) तीन गड्डियों में अलग-अलग घास की रस्सी से बांधा जाता है। ये तीनों गड्डियाँ पुनः एक बड़ी रस्सी से बांधी जाती हैं। उनके बीच में ( अन्तिम रस्सी के भीतर ) फूलते हुए कुश का एक गट्ठर रख दिया जाता है, जो प्रस्तर के रूप में प्रयुक्त होता है। यज्ञ स्थल पर यज्ञपात्रों को रखकर अरणियों से अग्नि उत्पन्न की जाती है । अध्वर्यु के कहने पर होता अरणियों को रगड़ते समय वैदिक मन्त्रों (ऋग्वेद १।२४१३, १/२२/१३, ६।१६ १३-१५) का उच्चारण तब तक करता है जब तक वह अध्वर्यु से दूसरा आदेश (सम्प्रेष) नहीं पा लेता। यदि अग्नि तत्काल न उत्पन्न हो तो होता मन्त्रोच्चारण (ऋग्वेद १०।११८) करता जाता है, और यह क्रिया (अरणियों के रगड़ने एवं मन्त्रोच्चारण की क्रिया) अग्नि प्रज्वलित होने तक होती रहती है। जब अध्वर्यु कहता है- " अग्नि उत्पन्न हो गयी" तो होता ऋग्वेद ( ६ । १६।१५) का मन्त्र उच्चारित करता है । इसके उपरान्त होता अन्य मन्त्र पढ़ता है, यथा ऋग्वेद १।७४ | ३ एवं ६।१६।४० का अर्ध भाग तथा ६।१६।४१-४२, ११२६, ८|४३|१४, 'तमर्जयन्त सुक्रतुम्' एवं ऋग्वेद १०।१०।१६ का परिघानीया पद्य ( अन्तिम मन्त्र ) । वैश्वदेव पर्व में नौ प्रयाज एवं नौ अनुयाज होते हैं, किन्तु दर्शपूर्णमास में केवल पाँच प्रयाज तथा तीन अनुयाज होते हैं। सविता की आहुतियों के लिए ऋग्वेद के ५१८२३७ एवं ६।७१।६ मन्त्र अनुवाक्या एवं याज्या हैं । अनुयाजों या सूक्तवाक या शंयुवाक के उपरान्त वाजिन नामक देवों के लिए वाजिन की आहुति दी जाती है । वाजिन का शेषांश एक पात्र में उसी प्रकार लाया जाता है जैसा कि इडा का ( अर्थात् वह अध्वर्यु द्वारा होता के जुड़े हाथों में रखा जाता है, होता उसे बायें हाथ में रखकर दायें हाथ में अध्वर्यु द्वारा छिड़का हुआ घृत धारण करता है और तब वाजिन के दो अंश रखे जाते हैं और पुनः उन पर कुछ घृत छिड़का जाता है) रखा जाता है। इसके उपरान्त पात्र मुख या नाक तक ऊपर उठाया जाता है। होता अन्य पुरोहितों से वाजिन खाने को कहता है । होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा एवं आग्नीध्र केवल सूंघकर वाजिन को अपनाते हैं । किन्तु यजमान वाजिन को वास्तविक रूप में खाता है । कात्यायन ( ५ | २|९ एवं १२ ) के मत से अध्वर्यु समिष्ट-यजु नामक तीन आहुतियाँ वात, यज्ञ एवं यज्ञपति के लिए देता है । शतपथ ब्राह्मण ( २/५/१/२१ ) इस कृत्य में दान के लिए ऋतु में प्रथम उत्पन्न बछड़े का निर्देश करता है। कात्यायन का कहना है कि तीनों चातुर्मास्यों की समाप्ति पर यजमान अपने केश बनवा सकता है, किन्तु शुनासीरीय नामक चातुर्मास्य में ऐसा नहीं करना चाहिए ( २।५।१।२१ ) । वरुणप्रघास 'वरुणघास' शब्द पुल्लिंग है और सदा बहुवचन में प्रयुक्त होता है । शतपथ ब्राह्मण ( २/५/२/१) ने इसकी २. प्रातःकाल के दूध को गर्म करके उसमें खट्टा दूध डालने से दही बनता है, उसका कड़ा भाग आमिक्षा तथा तरल पदार्थ वाजिन कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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