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अग्निहोत्र
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प्रणाम" (कात्या० ४११४१३०) या "तुम्हें पशु प्राप्ति के लिए" नामक शब्दों का उच्चारण करता है। आप० (६।१०। १०) ने प्रातः एवं सायंकाल के समय स्रुव को स्वच्छ करने की एक अलग विधि दी है और तै० सं० (१३१२१३१) के मन्त्र के उच्चारण की बात कही है। इसके उपरान्त हथेली को ऊपर तथा जनेऊ को प्राचीनावीत ढंग से धारण करते वह अपनी अंगुलियों को मौन रूप से "स्वधा पितृम्यः पितन् जिन्व" (आप० ६।११।४) या "स्वधा पितृभ्यः" (कात्या० ४।१४।२१ एवं आश्व० २।३।२१) नामक मन्त्र के साथ दक्षिण दिशा में कुशों की नोक पर रखता है। तब वह पूर्वाभिमुख हो उपवीत ढंग से जनेऊ रखकर आचमन करता है। इसके उपरान्त वह गार्हपत्याग्नि के पास जाता है और एक समिधा खड़े-खड़े उठाता है। पुनः पूर्वाभिमुख हो गाई पत्याग्नि की उत्तर-पश्चिम दिशा में बैठ जाता है और घुटने झुका कर गार्हपत्याग्नि में समिधा डालता है, फिर स्रुव में दूध लेकर “ता अस्य सूददोहसः" (ऋ० ८।६९।३) या कोई अन्य यथा “इह पुष्टिम् पुष्टिपतिः...पुष्टिपतये स्वाहा' नामक मन्त्र के साथ आहुति देता है। इसके उपरान्त वह कात्या० (४।१४।२४) एवं आश्व० (२।३१२७-२९) के अनुसार किसी भी विधि से दूसरी आहुति मौन रूप में या मन्त्रोच्चारण (ऋ० ९।६६।१९-२१) के साथ देता है। तब वह “अन्नादायानपतये स्वाहा" शब्दों के साथ दक्षिणाग्नि में त्रुव द्वारा दुग्धाहुति देता है और दूसरी आहुति मौन रूप से देता है। इसके उपरान्त वह जल स्पर्श करता है, उत्तराभिमुख होता है और अपनी एक अँगुली (कात्या० ४।१४।२६ के मत से अनामिका) से स्रुव में बचे हुए भाग को निकालकर बिना स्वर उत्पन्न किये तथा बिना दाँत के स्पर्श से चाट जाता है। वह फिर आचमन करके पुनः चाटकर आचमन करता है। इसके उपरान्त स्रुक में बचे हुए दूध आदि को हथेली में या किसी पात्र में लेकर जीभ से चाटता है। आप० (६।११५ एवं ६।१२।२) एवं बौधा० (३।६) में शेष को चाटने की विधि में कुछ अन्य बातें भी हैं, जिन्हें यहाँ स्थानाभाव से छोड़ा जा रहा है। इसके उपरान्त वह अपना हाथ धोता है, दो बार आचमन करता है, आहवनीयाग्नि के पास जाता है और बैठ जाता है, मुक् को जल से भरता है और स्रुव से जल को आहवनीयाग्नि के उत्तर “देवां जिन्व" शब्दों के साथ छिड़कता है। प्राचीनावीत ढग से जनेऊ धारण करके वह यही कृत्य पुनः करता है, किन्तु इस बार आहवनीयाग्नि के दक्षिण पितरों को "पितन् जिन्व" नामक शब्दों के साथ जलधारा देता है। तब वह यही क्रिया "सप्तर्षीन् जिन्व" कहकर उसरपूर्व में ऊपर को जल से करता है। चौथी बार वह सुक् को भरता है, आहवनीयाग्नि के पश्चिम में रखे (कूर्च स्थान के) दर्भ को हटाता है, वहाँ तीन बार पूर्व से उत्तर की ओर जल देता हैं। इसके उपरान्त वह स्रुव एवं सूक् को एक साथ ही आहवनीयाग्नि में गर्म करता है और उन्हें अन्तर्वेदी पर रख देता है या उन्हें किसी परिचारक को दे देता है। तब वह पर्युक्षण वाले क्रम के अनुसार (आह्वनीय, गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि या गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय के क्रम से) प्रत्येक अग्नि में समिधा डालता है। इसके उपरान्त गृहस्थ अग्नि की पूजा वात्सप्रस्तुतियों के साथ करता है या वाज० (३१३७) के अनुसार "भूर्भुवः स्वः"...आदि के उच्चारण के साथ संक्षेप में पूजा करता है और एक क्षण आहवनीय के पास बैटकर मौनाराधना करता है। तब वह गार्हपत्य के पास बैठता है या लेट जाता है। इसके उपरान्त वह सभी अग्नियों के लिए पर्युक्षण करता है। तब गृहस्थ अपना मौन तोड़कर आचमन करता है और बाहर निकल जाने पर दक्षिणाग्नि का ध्यान करता है। अन्त में पत्नी भी मौन रूप में आचमन करती है।
कात्या० (४।१२।१-२) के मत से सायंकाल वात्सप्र मन्त्रों (वाज० सं० ३३२-३६ एवं शत० ब्रा० २।३।४।९-४१) के साथ आहुतियाँ देने के उपरान्त उपस्थान करना (अग्नियों की स्तुति करना) इच्छा पर आधारित है, गृहस्थ चाहे तो नहीं भी कर सकता है या केवल एक मन्त्र का उच्चारण मात्र (वाज० सं० ३।३७ एवं शतपथ ब्रा० २।४।१११-२) कर सकता है। आप० (६।१६।४ एवं ६) ने तो उपस्थान के लिए छ: मन्त्रों तथा अन्य मन्त्रों के गायन की बात चलायी है, जिसकी व्याख्या स्थानाभाव से यहाँ नहीं की जा रही है। कुछ लोग उपस्थान को केवल सायंकाल के लिए
धर्म० ६६
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