________________
अग्न्याय
५१५ अग्नियां एक ही मण्डप के भीतर प्रतिष्ठित की जाती हैं। इन तीन अग्नियों में केवल वैदिक क्रियाएँ या कृत्य ही सम्पादित हो सकते हैं, उनमें साधारण भोजन नहीं पकाया जा सकता और न अन्य लौकिक उपयोग में आने वाले कार्य ही किये जा सकते हैं (जैमिनि १२।२।१-७)। गार्हपत्य अग्नि को प्राजहित अग्नि भी कहा जाता है (जैमिनि १२११।१३) तथा दक्षिणाग्नि को अन्वाहार्यपचन, क्योंकि इसी पर चावल पकाकर अमावस्या के दिन 'पिण्ड-पितृयज्ञ' किया जाता है।
यजमान सिर मुंडाकर एवं नख कटाकर स्नान करता है। उसकी पत्नी भी मुंडन के सिवा वही करती है। पति-पत्नी दो-दो रेशमी वस्त्र धारण करते हैं, जो अग्न्याधेय यज्ञ के उपरान्त अध्वर्यु को दे दिये जाते हैं। यजमान को अग्न्याधेय करने का संकल्प करना चाहिए और अपने पुरोहितों का चुनाव (ऋत्विग्-वरण) उचित मन्त्रों के उच्चारण के साथ उनके हाथों को स्पर्श करके करना चाहिए तथा उन्हें मधुपर्क देना चाहिए (आप० १०।१११३-१४)। दोपहर के उपरान्त (अपराह्म में) जब सूर्य वृक्षों के ऊपर चला जाय तो अध्वर्यु को चाहिए कि वह औपासन (गृह्याग्नि) का एक अंश ले आये और ब्राह्मौदनिक (जो ब्रह्मौदन के लिए तैयार किया जाता है) नामक अग्नि गार्हपत्य अग्नि वाले स्थल के पश्चिम की ओर प्रज्वलित करे या घर्षण से ही अग्नि उत्पन्न करे। इसके उपरान्त उसे स्थण्डिल (बाल आदि की वेदी) बनाना चाहिए और उस पर पश्चिम से पूर्व तीन रेखाएँ तथा दक्षिण से उत्तर तीन रेखाएँ खींच देनी चाहिए। स्थण्डिल पर जल छिड़कने के उपरान्त औपासन अग्नि से जलते हुए कोयले लाकर खींची हुई रेखाओं पर रख देने चाहिए। यदि वह सम्पूर्ण औपासन अग्नि उठा लेता है तो उसे चाहिए कि उदुम्बर की दो पत्तियों में एक पर जौ की रोटी तथा दूसरी पर चावल की रोटी लेकर उन्हें ब्राह्मौदनिक अग्नि के स्थल पर रख दे (जौ की रोटी को पश्चिम तथा चावल वाली को पूर्व की ओर) और तब उन पर अग्नि रखे। अध्वर्यु रात्रि में ब्राह्मौदनिक अग्नि के पश्चिम बैल की लाल खाल पर, जिसका मुख पूर्व की ओर रहता है और बाल वाला भाग ऊपर रहता है, या बांस
तन में चावल की चार थालियाँ रखता है। यह कार्य मन्त्रों के साथ या मौन रूप से ही किया जाता है। वह चार बरतनों में पानी के साथ चावल या जौ पकाता है। पके भोजन (ब्रह्मौदन) से दर्वी (करछुल) द्वारा कुछ निकालकर अग्नि को देता है और मन्त्रोच्चारण करता है (ऋ० ५।१५।१, ३० ब्रा० १२।१) । उसे "यह ब्रह्मा के लिए है, मेरे लिए नहीं" कहना चाहिए। चार थालियों में पका भोजन रखकर तथा उस पर पर्याप्त मात्रा में घी डालकर उन्हें (थालियों को) ऋषियों के वंशज चार पुरोहितों को देता है। शेष भोजन (ब्रह्मौदन) बरतनों से निकालकर तथा उस पर शेष घी गिराकर तथा उसमें चित्रिय अश्वत्थ की एक बित्ता वाली गीली तीन समिधाओं को पत्तियों सहित डुबाकर अग्नि में डाल दिया जाता है। ऐसा करते समय ब्राह्मणों के लिए तीन गायत्रियाँ (अग्नि को सम्बोधित कर), क्षत्रियों के लिए तीन त्रिष्टुप् तथा वैश्यों के लिए तीन जगतियाँ कही जाती हैं (आप० ५।६।३)।
जिस समय अग्नि में समिधा डाली जाती है, यजमान द्वारा अध्वर्यु को तीन बछड़े तथा उतने ही बछड़े ब्रह्मौदन खाने वाले अन्य सभी ब्राह्मणों को दिये जाते हैं। अग्न्याधान की तिथि के पूर्व एक वर्ष तक बछड़ों के दान एवं समिधाआहुति के साथ इस प्रकार ब्रह्मौदन सम्पादित किया जाता है । अग्न्याधेय के दिन से १२, ३, २ या १ दिन पूर्व प्रत्येक व्यक्ति को, जो तीन पवित्र अग्नियाँ स्थापित करना चाहता है, इस प्रकार की समिधाओं की आहुति देनी पड़ती है। यजमान कुछ व्रत करता है, यथा--मांस-त्याग, ब्रह्मचर्य, घर की अग्नि किसी को न देना, केवल दूध या मात पर तीन दिनों तक रहना, सत्य बोलना, पृथ्वी पर सोना आदि। यदि किसी कारणवश यजमान वर्ष (या १२ दिन आदि) में ब्रह्मौदन के उपरान्त अग्न्याधेय नहीं करता है तो उसे पुनः ब्रह्मौदन पकाना पड़ता है तथा समिधाएँ डालनी पड़ती हैं, तब कहीं वह अग्न्याधान सम्पादित कर पाता है। अग्न्याधान-दिन के पूर्व की रात्रि में अध्वर्यु तथा अन्य पुरोहित भी कुछ व्रत करते हैं, यथा-मांस-त्याग तथा संभोग से दूर रहना। उस रात्रि काले धब्बों वाली एक बकरी गार्हपत्य अग्नि के लिए
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org