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अध्याय २९ श्रौत (वैदिक) यज्ञ उपोद्घात
वैदिक साहित्य को भली भाँति समझने, उस साहित्य के निर्माण-काल, विकास एवं उसके विभिन्न भागों के स्तरों के सम्बन्ध में अपेक्षाकृत एक निश्चित मान्यता स्थिर करने, चारों वर्णों एवं जाति-व्यवस्था पर उस साहित्य के प्रभाव की जानकारी, ब्राह्मणों के कतिपय उपजातियों में विभाजित हो जाने के कारणों के ज्ञान तथा विभिन्न गोत्रों एवं प्रवरों के यथातथ्य विवेचन के लिए वैदिक यज्ञों का गम्भीर अध्ययन परमावश्यक है। बहुत-से आरम्भिक यूरोपीय लेखकों ने बिना वैदिक यज्ञों का गम्भीर अध्ययन किये, वेदों का अर्थ केवल व्याकरण, तुलनात्मक भाषाशास्त्र आदि के आधार पर किया, जो आगे चलकर बहुत अंशों में भ्रमात्मक सिद्ध हुआ। यूरोपीय विद्वान् वेदों को अति प्राचीन कहने में संकोच करते थे, अतः अधिकांश यूरोपीय भारत-तत्त्वान्वेषकों ने वैदिक मन्त्रों को ईसापूर्व १४०० वर्षों से पूर्व रचे हुए नहीं माना। इस विषय में सर्वप्रथम संस्कृत साहित्य एवं भारतीयता के विवेचक एवं प्रसिद्ध विद्वान् मैक्समूलर से ही त्रुटि हो गयी और आगे चलकर कुछ अन्य यूरोपीय विद्वानों ने उन्हीं की बातें दुहरायीं । हम यहाँ वैदिक साहित्य के विभिन्न अंगों के काल-विभाजन के पचड़े में नहीं पड़ेंगे, क्योंकि यह विषय इस ग्रन्थ की अध्ययन-परिषि के बाहर है। इसमें सन्देह नहीं रह गया है कि वैदिक मन्त्र ई० पू० १४०० के बहुत पहले, अनेक शताब्दियों पूर्व निर्मित हुए थे। वैदिक वाङमय में अधिकांश (कुछ सीमा तक ऋग्वेद को छोड़कर) संहिताएँ यज्ञों के सम्प्रदाय - सम्बन्धी स्वरूपों के आधार पर गठित हैं। विभिन्न यज्ञों के लिए विभिन्न पुरोहितों की आवश्यकता पड़ती थी, और ये विभिन्न पुरोहित अपने पास विभिन्न मन्त्रों के संग्रह रखते थे ।
वैदिक यज्ञों के सम्यक् ज्ञान के लिए कतिपय वैदिक संहिताओं, ब्राह्मणों एवं श्रौतसूत्रों का सावधानीपूर्वक अध्ययन अपेक्षित है । अंग्रेजी में इस सम्बन्ध की पुस्तकें ये हैं-हाग द्वारा ऐतरेय ब्राह्मण का टिप्पणी सहित अनुवाद, प्रो० इग्गेलिंग द्वारा शतपथ ब्राह्मण का टिप्पणी सहित अनुवाद, प्रो० कीथ लिखित " वेद एवं उपनिषदों का धर्म एवं दर्शन" ( रिलिजिएन एण्ड फिलॉसॉफी आव दि वेद एण्ड उपनिषद्स) नामक पुस्तक, कृष्ण यजुर्वेद एवं ऋग्वेद-ब्राह्मण का अनुवाद, श्री कुन्ते कृत “विसिसिट्यूड्स आव आर्यन् सिविलिजेशन इन इण्डिया" (१८८०), विशेषतः पृ० १६७-२३२ ॥ इनके अतिरिक्त सर्वश्री वेबर एवं हिल्लेग्रांट ने जर्मन भाषा में वैदिक यज्ञों के विषय में महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । सर्वश्री लण्ड एवं हेनरी ने अग्निष्टोम पर (१९०६) एक बहुत ही विशद, विद्वत्तापूर्ण एवं व्यवस्थित ग्रन्थ का प्रणयन फांसीसी किया है। इसी प्रकार जर्मन भाषा में प्रो० डुमाण्ट कृत 'ल अग्निहोत्र' (१९३९) नामक पुस्तक तथा हिल्लेग्रांट कृत कुछ पुस्तकें अति प्रसिद्ध हैं। इस अध्याय में मौलिक ग्रन्थों के आधार पर ही विवेचन उपस्थित किया जायगा, किन्तु कहीं-कहीं आधुनिक लेखकों के ग्रन्थों की ओर भी संकेत किया जायगा ।
जैमिनि ने 'पूर्वमीमांसासूत्र' में मीमांसा सम्बन्धी सिद्धान्तों के विषय में सहस्रों उक्तिय संगृहीत की हैं और कतिपय यज्ञों के विस्तार के विषय में अपने निश्चित निष्कर्ष दिये हैं। इस अध्याय में जैमिनि के निष्कर्षो की विशेष चर्चा की जायगी।
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