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धर्मशास्त्र का इतिहास ओर जब कि वह दान देता है या मन्त्रोच्चारण करता है। यही बात अन्वारम्भण या वरदान के चुनाव या व्रत (सत्यता आदि) करने में या ऊँचाई लेने (याज्ञिक की ही ऊँचाई माप-दण्ड का कार्य करती है) के सिलसिले में समझनी चाहिए। जब बिना कर्ता का नाम लिये किसी कृत्य का वर्णन होता है तो वहाँ अध्वर्यु को ही कर्ता समझना चाहिए, प्रायश्चित्तों के विषय में 'जुहोति' एवं 'यजति' शब्दों का सम्बन्ध है ब्रह्मा पुरोहित (ऋत्विक) से। जब केवल एक ही पाद' का उल्लेख किया जाय, तो इसका तात्पर्य है सम्पूर्ण मन्त्र का उच्चारण करना। जब किसी कृत्य में केवल आरम्भिक शब्द व्यक्त किये गये हों तो उससे यह समझना चाहिए कि सम्पूर्ण सूक्त का उच्चारण करना है। जहाँ एक पाद से कुछ अधिक कहा गया हो वहाँ यह समझना चाहिए कि आगे के अन्य दो मन्त्र (कुल मिलाकर तीन मन्त्र) भी पढ़े जाने हैं। जप, आमन्त्रण, अभिमन्त्रण, आप्यायन, उपस्थान के मंत्र और वे मन्त्र जो किये जाने वाले कृत्य की ओर संकेत करें, उपांशु ढंग (मन्द स्वर) से कहे जाने चाहिए। सामान्य नियम (प्रसंग) से विशिष्ट नियम (अपवाद या विशेष विधि) अधिक शक्तिशाली समझा जाता है।
कुछ अन्य सामान्य सिद्धान्त-याग (यज्ञ) में द्रव्य, देवता एवं त्याग तीन वस्तु मख्य हैं, अतः याग का तात्पर्य है देवता के लिए द्रव्य का त्याग। होम का अर्थ है किसी देवता के लिए अग्नि में द्रव्य की आइति। यजतियां (यज्ञ-सम्बन्धी कृत्य), जिनके लिए कोई फल नहीं मिलता, याग के प्रमुख अंग हैं। मन्त्रों की श्रेणियाँ चार हैं; ऋक्, यजुः, साम एवं निगद, जिनमें ऋक् तो मात्रिक हैं, यजुः के लिए मात्राबद्ध या छन्दबद्ध होना आवश्यक नहीं है, किन्तु वे पूर्ण वाक्य के रूप में अवश्य होते हैं (कात्या० ११३१२), साम का गायन होता है, निगद को प्रेष कहते हैं, अर्थात् ऐसे शब्द जो किसी को कोई कार्य करने के लिए सम्बोधित किये जाते हैं, यथा 'प्रोक्षणीरासादय', 'स्रुचः सम्मृड्ढि' (कात्या. यन० २।६।३४)। निगद, वास्तव में यजुः ही होते हैं, किन्तु दोनों में अन्तर यह है कि निगदों का उच्चारण जोर से किन्तु यजुः का धीरे से होता है । जैमिनि (२।११३८-४५) ने साधारण यजुः एवं निगद के अन्तर को समझाया है और ऋक्, साम एवं यजुः के भेदों को भी प्रकट किया है (२१११३५-३७) । ऋग्वेद एवं सामवेद के पद जोर से, किन्तु यजुः के मन्द स्वर से (कुछ पदों को छोड़कर, यथा--'आश्रुत' अर्थात्-'आश्रावय' के समान अन्य, 'प्रत्याश्रुत' अर्थात्-- उत्तर-'अस्तु श्रौषट्', 'प्रवर-मन्त्र' अर्थात्-'अग्निदेवो होता' आदि, संवाद अर्थात् प्रार्थनाएँ एवं आज्ञाएँ--'क्या मैं पानी छिड़ा ? हाँ, छिड़को', सम्प्रेष अर्थात्--कुछ करने के लिए बुलाना, यथा 'प्रोक्षणीरासादय') कहे जाते हैं। उच्च स्वर तीन प्रकार के होते हैं-अति उच्च, मध्यम उच्च एवं कम उच्च । सामिधेनी पद मध्यम स्वर से उच्चारित होते हैं। ज्योतिष्टोम एवं प्रातःसवन में अन्वाधान से लेकर आज्यभाग तक मन्द स्वर से. किन्तु दर्श-पूर्णमास के कृत्यों में आज्यभाग से लेकर स्विष्टकृत् तक सभी मन्त्र मन्द स्वर में उच्चारित होते हैं। स्विष्टकृत् के उपरान्त दर्श-पूर्णमास तथा तृतीय सवन के सब मन्त्र उच्च स्वर में कहे जाते हैं। उत्कर वह स्थल है जहाँ वेदी की धूल बटोरकर (बुहारकर) रखी जाती है, आहवनीय से उत्तर के पात्र में रखा गया जल प्रणीता कहलाता है। याज्ञिक स्थल, जहाँ अग्नि प्रज्वलित रखी जाती है, विहार कहा जाता है। इष्टियों में विहार से आना-जाना प्रणीता एवं उत्कर के बीच से होता है (अर्थात् उत्कर से पूर्व एवं प्रणीता से पश्चिम), किन्तु अन्य स्थितियों में उत्कर एवं चात्वाल के बीच से होता है (आश्व० १।१। ४-६ एवं कात्यायन० १।३।४२-४३) । विहार की ओर जाने के इस मार्ग को या पथ को तीर्थ कहा जाता है । चात्याल वह गड्ढा है जो सोम एवं पशु-यज्ञों में आवश्यक माना जाता है। बहुत-से पात्रों एवं बरतनों की आवश्यकता होती है, जिनमें खुव खदिर नामक काष्ठ से बनाया जाता है। स्रुव एक अरत्नी (हाथ भर) लम्बा होता है और उसका मुख गोलाकार एवं अंगूठे के बराबर होता है। बुक (आहुति देने वाली खुची दर्वी या चमस चम्मच) एक हाथ लम्बा होता है और उसका मुख हथेली की भाँति होता है, किन्तु निकास हंस की चोंच के समान होता है। स्रुक तीन प्रकार का होता है--जुहू (दर्वी) जो पलाश का बना होता है, उपभृत जो पीपल से बना होता है तथा ध्रुवा जो विकंकत काष्ठ से बना
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