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नित्यकर्म
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है। ब्राह्मण किसी पुरोहित को नियुक्त कर अपनी पत्नी की अध्यक्षता में गृह्याग्नि छोड़कर व्यापार के लिए बाहर जा सकता है, किन्तु बिना किसी कारण उसे बाहर बहुत दिनों तक नहीं रहना चाहिए। जब पति-पत्नी बाहर गये हों तो पुरोहित को गृहस्थ के स्थान पर होम नहीं करना चाहिए। क्योंकि उनके अभाव में ऐसा होम निष्फल एवं निरर्थक होता है (गोमिलस्मृति ३११)। जब गृहस्थ की अपनी जाति वाली कई पत्नियाँ हों तथा अन्य जाति वाली पत्नियां भी हों तो धार्मिक कृत्य किसके साथ हों; इस विषय में पहले ही लिखा जा चुका है (विष्णुधर्मसूत्र २६६१-४७, देखिए अध्याय ९)। पत्नी की मृत्यु पर श्रौत अग्नियों का परित्याग नहीं करना चाहिए, प्रत्युत व्यक्ति को जीवन भर धार्मिकता के रूप में अग्निहोत्र करते जाना चाहिए। गोमिलस्मृति (३९) ने तो यहाँ तक कह डाला है कि इसके लिए दूसरी सवर्ण या असवर्ण नारी से सम्बन्ध कर लेना चाहिए। राम ने सीता-परित्याग के उपरान्त सोने की सीताप्रतिमा के साथ यज्ञादि किये थे। किन्तु सत्याषाढ द्वारा अपने श्रौत सूत्र में वर्णित नियम के अनुसार अपरार्क ने उपयुक्त छूट की भर्त्सना की है। सत्याषाढ का नियम है-“यजमान, पत्नी, पुत्र, सम्यक् स्थान एवं काल, अग्नि, देवता तथा धार्मिक कृत्य एवं वचनों का कोई प्रतिनिधि नहीं हो सकता (३।१)।" सत्याषाढ का तर्क यह है कि घृत की ओर निहारने, चावल को बिना भूसी का करने आदि में वास्तविक पत्नी का कार्य पत्नी के अभाव में उसकी प्रतिमा, कुश-प्रतिमा आदि नहीं कर सकती। किन्तु स्मृतिचन्द्रिका के कथन से प्रकट होता है कि अन्य स्मृतियों ने सत्याषाढ की बात दूसरे अर्थ में ली है-"सत्याषाढ ने पत्नी के प्रतिनिधि को किसी मानव के रूप में अवश्य स्वीकार नहीं किया है, किन्तु उन्होंने सोने या कुश की प्रतिमा का विरोध नहीं किया है।" वृद्धहारीत (९।२।४) ने लिखा है कि यदि पत्नी मर जाय तो अग्निहोत्र तथा पंचयज्ञ पत्नी की कुश-प्रतिमा के साथ किये जा सकते हैं। यदि पत्नी मर जाय, वह स्वयं बाहर चला जाय या पतित हो जाय तो उसका पुत्र अग्निहोत्र कर सकता है (अत्रि १०८)। ऐतरेयब्राह्मण (३२१८) के अनुसार विधर वा अपत्नीक को भी अग्निहोत्र करना चाहिए, क्योंकि वेद यज्ञ करने की आज्ञा देता है।
याज्ञवल्क्य (३।२३४, २३९) तथा विष्णुधर्मसूत्र (३७।२८ एवं ५४।१४) के मत से यदि समर्थ व्यक्ति वैदिक, श्रौत एवं स्मार्त अग्नि प्रज्वलित न करे (यज्ञ न करे) तो वह उपपातक का भागी होता है। वसिष्ठधर्मसूत्र (३।१) के अनुसार जो वेद का अध्ययन या अध्यापन नहीं करता या जो पवित्र अग्नियों को प्रज्वलित नहीं रखता वह शूद्र के समान होता है। यही बात गार्य ने कही है-“यदि विवाहोपरान्त द्विज समर्थ रहने पर भी बिना अग्नि के एक क्षण भी रहता है, तो वह व्रात्य एवं पतित हो जाता है। मुण्डकोपनिषद् (१।२।३) ने घोषित किया है कि जो दर्श-पूर्णमास एवं अन्य यज्ञ तथा वैश्वदेव नहीं करता उसके सातों लोक नष्ट हो जाते हैं। इस विषय में और देखिए तैत्तिरीय संहिता (१।५।२।१) एवं काठकसूत्र (९।२)।
जप याज्ञवल्क्य (११९९) आदि ने जप (गायत्री एवं अन्य वैदिक मन्त्रों के जप) को सन्ध्या-पूजन का एक भाग माना है। इस ओर अध्याय ७ में संकेत किया जा चुका है। याज्ञवल्क्य (११९९) ने प्रातः होम के उपरान्त सूर्य के लिए सम्बोधित मन्त्रों के जप की तथा (१११०१) मध्याह्न स्नान के उपरान्त दार्शनिक उक्तियों (यथा उपनिषदों की वाणी-गौतम १९।१२ एवं वसिष्ठधर्मसूत्र २२।९) के जप की बात कही है। वसिष्ठधर्मसूत्र (२८।१०-१५) ने विशेषतः ऋग्वेद की ऋचाओं के मौन पाठ से पवित्र होने की बात कही है। कुछ विशिष्ट मन्त्र ये हैं-अघमर्षण (ऋग्वेद १०।१९०।१-३), पावमानी (ऋग्वेद ९), शतरुद्रिय (तैत्तिरीय सहिता ४।५।१-११), त्रिसुपर्ण (तैत्तिरीयारण्यक, १०।४८-५०) आदि। मनु (२१८७), वसिष्ठ (२६।११.), शंखस्मृति (१२।२८), विष्णुधर्मसूत्र (५५। २१) का कहना है कि यदि ब्राह्मण और कुछ न करे किन्तु जप अवश्य करे तो वह पूर्णता को प्राप्त कर सकता है।
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