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धर्मशास्त्र का इतिहास
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व्याघ्रों, भेड़ियों एवं बाज द्वारा मारे गये जन्तुओं का मांस खाते हैं, पकाकर अग्नि को चढ़ाते हैं और स्वयं खाते हैं) । अपचमानक के पाँच प्रकार ये हैं- उम्मज्जक (जो भोजन रखने के लिए लोहे या पत्थर का साधन नहीं रखते), प्रवृत्ताशिनः (जो बिना पात्र लिये केवल हाथ में ही लेकर खाते हैं), मुखेनावायिनः (जो बिना हाथ के प्रयोग के पशुओं की मति केवल मुख से ही खाते हैं), तोयाहार (जो केवल जल पीते हैं) तथा वायुभक्ष (जो पूर्ण रूप से उपवास करते हैं)। बौधायन के अनुसार ये ही वैखानस की दस दीक्षा हैं। मनु ( ६।२९ ) ने भी वन की दीक्षाओं के लिए कुछ नियमों की व्यवस्था बतलायी है।
बृहत्पराशर (अध्याय १९, पृ० २९० ) ने वानप्रस्थों के चार प्रकार बताये हैं; वैखानस, उदुम्बर, वालसित्य एवं बनेवासी । वैखानस ( ८1७ ) के मत में वानप्रस्थ या तो सपत्नीक या अपत्नीक होते हैं, जिनमें सपत्नीक पुनः चार प्रकार के हैं; औदुम्बर, वैरिव, वालखिल्य एवं फेनव। रामायण (अरण्यकाण्ड, अध्याय १९ । २-६) ने वानप्रस्थों को बालखिल्य, अश्मकुट्ट आदि नामों से पुकारा है।
वानप्रस्थ के अधिकारी
शूद्रों को छोड़कर अन्य तीन वर्णों में
कोई भी वानप्रस्थ हो सकता है । शान्तिपर्व (२१।१५) में आया है कि क्षत्रिय को राज्यकार्य पुत्र पर सौंपकर वन में चल जाना चाहिए और वन में उत्पन्न खाद्य पदार्थों का सेवन करना चाहिए तथा श्रावण ( श्रामणक) शास्त्रों के अनुसार चलना चाहिए। " आश्वमेधिक पर्व ( ३५ ४३ ) में स्पष्ट शब्दों में लिखित है कि वानप्रस्थ आश्रम तीनों द्विजातियों के लिए है। महाभारत ने बहुत-से वानप्रस्थ राजाओं की चर्चा की है। राजा ययाति ने अपने पुत्र पुरु को राजा बनाकर स्वयं वानप्रस्थ ग्रहण किया (आदिपर्व ८६।१ ) और वन कठिन तप करके उपवास से शरीर त्याग दिया ( आदिपर्व ८६ । १२ - १७ एवं ७५।५८ ) । आश्वमेधिकपर्व (अध्याय १९) में आया है कि धृतराष्ट्र ने अपनी स्त्री गान्धारी के साथ वानप्रस्थ ग्रहण करके वृक्ष की छालों एवं मृगधर्म को वस्त्र रूप में धारण किया। पराशरमाघवीय ( १२, पृ० १३९ ) ने मनु (६।२), यम तथा अन्य लेखकों का उल्लेख करके तीनों उच्च वर्णों को वानप्रस्थ के योग्य ठहराया है। स्त्रियां भी वानप्रस्थ हो सकती थीं। मौशलपर्व (७/७४) में आया है कि श्री कृष्ण के स्वर्ग-गमन के उपरान्त उनकी सत्यभामा आदि पत्नियां वन में चली गयीं और कठिन तपस्या में लीन हो गयीं। यादिपर्व (१२८।१२-१३) ने लिखा है कि पाण्डु की मृत्यु के उपरान्त सत्यवती अपनी दो पुत्रवधुओं के साथ तप करने को वन में चली गयी और वहीं मर गयी। और देखिए शान्तिपर्व (१४७।१०, महाप्रस्थान के लिए) एवं आश्रमवासिपर्व (३७/२७-२८ ) । वैखानस ( ८1१) एवं वामनपुराण (१|४|११७- ११८ ) के अनुसार ब्राह्मण चार आश्रमों, क्षत्रिय तीन ( संन्यास को छोड़कर), वैश्य दो (ब्रह्मचर्यं एवं गृहस्थ ) एवं शूद्र केवल एक (गृहस्थ ) आश्रम का अधिकारी होता है। शम्बूक नामक शूद्र की गाथा प्रसिद्ध ही है।
आत्म-हत्या का प्रश्न एवं वानप्रस्थ का प्राण-त्याग
वानप्रस्थ का महाप्रस्थान एवं उच्च शिखर आदि से गिरकर प्राण त्याग करना कहाँ तक संगत है, इस पर धर्मशास्त्र के लेखकों के विभिन्न मत हैं। धर्मशास्त्रकारों ने सामान्यतः आत्महत्या की भर्त्सना की है तथा आत्महत्या
७. पुत्रसंकामितमीश्च वने वन्येन वर्तयन्। विधिना श्रावणेनैव कुर्यात्कर्माव्यतन्द्रितः ॥ शान्तिपर्व २१|१५| भावण शब्द सम्भवतः अमन या भ्रामक का ही एक भेद है।
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